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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 291 कषाय-विजय और तनावमुक्ति कषाय और तनाव के सह-सम्बन्ध का हम इसके पूर्व चतुर्थ अध्याय में विवेचन कर चुके हैं। यहाँ हम कषाय-विजय अर्थात् कषायमुक्ति की चर्चा करेंगे। वस्तुतः, कषाय-मुक्ति से ही तनावमुक्ति सम्भव है। जैनदर्शन में कषाय को कर्मबन्धन का एवं कर्मबन्धन को संसार-भ्रमण का हेतु माना गया है। संसार में जन्म-मरण का चक्र ही समस्त दुःखों का कारण है। दूसरे शब्दों में कहें, तो कषायमुक्ति ही दुःखमुक्ति का मूल आधार है और सांसारिक-दुःख या तनाव से मुक्ति के लिए कषाय मुक्ति आवश्यक है। अन्य शब्दों में, दुःखमुक्ति या तनावमुक्ति के लिए कषायमुक्त होना आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार, कषायमुक्त जीव ही मोक्ष को प्राप्त करता है। मोक्ष तनावमुक्ति की ही एक अवस्था है। कषाय को हम व्यक्ति के तनावयुक्त होने की अवस्था की अभिव्यक्ति भी कह सकते हैं। कषाय की इन वृत्तियों से ही तनाव की उत्पत्ति भी होती है। एक ओर, जहाँ क्रोध और अहंकार को तनाव की एक अवस्था कहते हैं, वहीं दूसरी ओर, मान, माया और लोभ को तनाव की स्थिति के साथ-साथ तनाव के कारण भी बताए गए हैं, अतः तनावमुक्ति के लिए तनाव की स्थिति और तनाव का निराकरण करना आवश्यक है। इस प्रकार, जैन आगमों में कषाय-विजय को सभी दुःखों से मुक्ति का उपाय भी बताया गया है। कषायों का सीधा सम्बन्ध हमारे बाह्य-व्यवहार (आचरण) से है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण भी उसके कषायजन्य आवेगों से किया जाता है। कषायों के आवेग जितने तीव्र होंगे, उसके मन की अस्थिरता भी उतनी ही अधिक होगी और व्यक्ति में कषायों की प्रवृत्ति जितनी कम होगी, उसका मन उतना ही स्थिर होगा। मन की अस्थिरता व्यक्ति के अशांत होने की अवस्था है। मन की अस्थिरता या चंचलता कभी भी व्यक्ति को संतुष्टि का अनुभव नहीं होने देती है। तनावग्रस्तता से मुक्त होने का उपाय है- मन को स्थिर करना। मन की स्थिरता कषायों से ऊपर उठने पर ही सम्भव है। जैसे-जैसे कषायों के आवेग कम होते जाएंगे, मन की स्थिरता बढ़ती जाएगी। जैसे-जैसे मन की स्थिरता बढ़ेगी, व्यक्ति तनावमुक्ति की दिशा में अग्रसर होगा। कषायों का प्रभाव मात्र व्यक्ति के व्यक्तित्व पर ही नहीं, वरन् उसके सम्पूर्ण जीवन पर पड़ता है। अगर काषायिक-वृत्तियाँ अधिक होंगी, तो व्यक्ति का सारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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