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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अपनी ही बुद्धि को सही मानकर व्यवसाय को अपने तरीके से चलाना चाहता है। इन सबमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक परिवार में तनाव की स्थिति बनी रहेती है। वस्तुतः इन सबके मूल में जो दृष्टिभेद है, उसे अनेकान्त-पद्धति से सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। अनेकान्तदृष्टि परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे को समझने में सहायक बनती है। हम जब दूसरे के सम्बन्ध में विचार करें, कोई निर्णय लें, तो पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा मानकर सोचना चाहिए । अपनी बात पर अडिग रहने से पहले दूसरे के पहलू पर भी विचार करना चाहिए । यही एक ऐसी दृष्टि है, जिससे परिवार में शांति व प्रेमपूर्ण वातावरण बनता है ।
इन्द्रिय-विजय और तनावमुक्ति
मनुष्य का बाह्य - जगत् से सम्बन्ध इन्द्रियों के माध्यम से होता है । इन्द्रियों के बहिर्मुख होने से जीव की रुचि बाह्य - विषयों में होती है और इसी से उनको पाने की कामना और संकल्प का जन्म होता है । इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। अनुकूल के प्रति राग व प्रतिकूल के प्रति द्वेष होता है, अथवा यूं कहें कि अनुकूल को बार-बार प्राप्त करने की चाह होती है और प्रतिकूल का संयोग न हो- यह मनःस्थिति बनती है। ये मनःस्थितियाँ ही व्यक्ति की चेतना में तनाव को जन्म देती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भी इन्द्रियों और मन को ही तनाव का कारण बताया है। उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों तथा मन से विषयों के सेवन की लालसा पैदा होती है। सुखद अनुभूति को पुनः पुनः प्राप्त करने की इच्छा और दुःख से बचने की इच्छा से ही राग या आसक्ति उत्पन्न होती है। इस आसक्ति से प्राणी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, घृणा, हास्य, भय, शोक तथा स्त्री-पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी कामवासनाएँ आदि अनेक प्रकार के शुभाशुभ भावों को उत्पन्न करता है। इस प्रकार, इन्द्रियों और मन के विषयों में आसक्त प्राणी जन्म-मरण के चक्र में फंसकर विषयासक्ति से अवश, दीन, लज्जित और करुणाजनक स्थिति को प्राप्त हो जाता है। रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु - इन्द्रिय है, और रूप चक्षु - इन्द्रिय का विषय है। प्रिय रूप राग का और अप्रिय रूप
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उत्तराध्ययनसूत्र 32/102-105
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