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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
पुंज है ।"565 मनोवैज्ञानिकों का तो काम ही यही है कि व्यक्ति में निहित विविध विशेषताओं और विलक्षणताओं को देखना, समझना और समझकर व्यक्ति की मानसिक-स्थिति का विकास करना । व्यक्ति की असंतुलित मानसिक स्थिति को संतुलित करने के लिए, उसमें विद्यमान दोनों गुणों को देखना होता है, अर्थात् तनाव के कारण को और तनावमुक्ति के लिए उनके सम्यक् मार्ग को । व्यक्ति को तनावमुक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति सभी पक्षों, आयामों या स्थितियों को जान जाए और उनमें जो गुण उसे तनावमुक्त रखें, उनका विकास किया जा सके और जो स्थितियां उसे तनावग्रस्त बनाती हैं, उनका निराकरण किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में विविध पक्ष होते हैं और उसी में विरोधी व्यक्तित्व के लक्षण भी पाए जाते हैं, जैसे- वासना और विवेक । व्यक्ति में एक ओर अनेक वासनाएँ, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ भरी हुई हैं, तो दूसरी ओर, इन सभी पर नियंत्रण करने के लिए विवेक का गुणधर्म है। ये दोनों एक साथ ही उपस्थित रहते हैं, किन्तु इनमें एक दृष्टि तनाव उत्पन्न करने का मुख्य कारण है, तो दूसरी तनाव को समाप्त करने में सहायक होती है । वासनाएँ व्यक्ति के अंदर क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेषादि भावनाओं को उत्पन्न करती हैं, तो विवेक व्यक्ति में शांति, तृप्ति, वीतरागता, सहिष्णुता, नियंत्रणादि का विकास करता है। इस कड़ी में व्यक्ति में भय व साहस, अज्ञान व ज्ञान, आक्रोश व करुणा, हीनत्व और उच्चत्व, घृणा व प्रेम आदि की ग्रंथियाँ होती हैं, इनमें से क्रमशः प्रथम तनाव को उत्पन्न करती है व दूसरी तनावमुक्त करती है। व्यक्ति को अगर तनावमुक्ति को पाना है, तो उसे इन दोनों पक्षों को समझना होगा और वासना, भय, आक्रोश, हीनत्वादि पर सम्यक् नियंत्रण कर विवेक, साहस, करुणा, उच्चत्वादि के विकास का प्रयास करना होगा ।
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जिस प्रकार व्यक्ति बहुआयामी होता है, उसी प्रकार उसका व्यक्तित्व भी बहुआयामी होता है और उसे सही प्रकार से समझने के लिए अनेकान्त की दृष्टि आवश्यक होती है। अनेकान्त की दृष्टि से ही व्यक्ति की तनावग्रस्त मानसिक स्थिति को तनावमुक्त व संतुलित बनाया जा सकता है।
565 अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सत्पभंगी (सिद्धांत और व्यवहार) - डॉ. सागरमल जैन, पृ.43
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