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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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3. सूत्ररुचि – तनावमुक्ति के लिए उन उपदेशों को ग्रहण करना, जो सही दिशा-निर्देश करते हैं, सत्ररुचि है। 4. आगमरुचि- आगम के उपदेशों को सुनकर उन पर चिन्तन-मनन करना आगमरुचि है। शुक्लध्यान - यह धर्मध्यान के बाद की स्थिति है। धर्मध्यान के द्वारा तनावग्रस्त व्यक्ति के मन को वासनारूपी विकल्पों से मोड़कर धर्मध्यान में लगाया जाता है। शुक्लध्यान के द्वारा मन को शान्त और तनावमुक्त किया जाता है। इसकी अन्तिम परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। शुक्लध्यान के चार भेद कहे गए हैं - 1. पृथकत्व-वितर्क-सविचार - इस ध्यान में ध्याता द्रव्य की पर्यायों का चिन्तन करता है। व्यक्ति के राग-द्वेष के भाव द्रव्य पर ही होते हैं। द्रव्य की पर्यायों का चिन्तन करते-करते वह उस द्रव्य के प्रति राग-द्वेष से रहित होकर तनावमुक्त हो जाता है। 2. एकत्व-वितर्क-अविचार - यह पृथक्त्व-वितर्क-सविचार का विरोधी है। इसमें विचार का अभाव होता है। 3. . सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती - इस अवस्था में मन, वचन और शरीर के व्यापार का निरोध हो जाता है। व्यक्ति शांति का, आनन्द का अनुभव करता है। 4. समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति - यह पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है।। - पूर्णतः तनावमुक्त व्यक्ति में निम्न लक्षण पाए जाते हैं, जो शुक्लध्यानी के होते हैं - 1. ऐसा व्यक्ति किसी भी पीड़ा की स्थिति में अल्पमात्रा में भी दुःखी या तनावग्रस्त नहीं होता, इसे ही स्थानांगसूत्र में अव्यथ-परीषह कहा गया है। ... 2. तनाव उत्पन्न करने वाली इच्छाओं, आकांक्षाओं का अंत हो जाता है, अर्थात् वह किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होता। 3. . विवेक – स्व और पर के भेद को समझकर शुद्धात्म स्व स्वभाव में रमण करता है।
40" जैन साधना पद्धति में ध्यान - डॉ. सागरमल जैन, पूत्र 30
(1) स्थानांगसूत्र - 4/69 (2) ध्यानशतक - 78-84 (1) स्थानांगसूत्र - 4/70 (2) जैन साधना पद्धति में ध्यान – डॉ. सागरमल जैन, पृ.
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