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________________ 1 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति कारण लोगों में संग्रह करने की वृत्ति बढ़ती जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति भौतिक संसाधनों में ही शांति को खोजता है और उसी से ही आनंद प्राप्त करता है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- "The vast differences in material possession as well as in the modes of consumption have divided the human race into two categories of Haves and have not's. "12 इसी कारण, व्यक्तियों में ईर्ष्या और द्वेष की `भावनाएँ उत्पन्न हो गई हैं और ये भावनाएँ ही उन्हें सदैव तनावग्रस्त रखती हैं। आर्थिक विषमता कैसे व्यक्ति में तनाव उत्पन्न करती है, इसका विस्तार से विवेचन आगे किया जा रहा है। 1 22 Dr. Sagarmal Jain says that the basic problems of present society are mental tensions, violence and conflicts of ideologies and faiths. 13. आज सिर्फ विश्व के मुख्य राष्ट्रों में ही नहीं, अपितु उन राष्ट्रों के छोटे-से-छोटे शहर और ग्रामों के समाज और परिवारों में भी तनावजन्य स्थिति बढ़ती जा रही है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच के अनुसार अपने मत सत्य मानता है और दूसरे के मत का विरोध करता है। यह भी सम्भव है कि परस्पर विरोधी मत भी सत्य हों, उदाहरणार्थ किसी परिवार का एक व्यक्ति किसी का पिता है, तो किसी का पति, किसी का बेटा है, तो किसी का भाई । व्यक्ति एक ही है किन्तु उससे अपने रिश्ते के सम्बन्ध में मत अनेक हैं। सभी का अपना-अपना सम्बन्ध है, कोई भी गलत नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि वर्तमान में व्यक्ति स्वयं की बात को सही मानता है और दूसरे की बात का विरोध करता है। यह विरोध का भाव प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राज्य में तनाव उत्पन्न करता है। सभी स्वयं को सही व दूसरों को गलत साबित करने का प्रयत्न करते रहते हैं। तनाव की इस स्थिति को समाप्त करने के लिए जैनदर्शन ने अनेकान्तवाद का सिद्धांत दिया है। सूत्रकृतांग में वर्णित है कि जो व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में सोचता है, स्वयं को ही सत्य और दूसरों को असत्य बताकर उनकी निन्दा करता है, वह जन्म मरण के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो पाता । 4 12 Peace, Religious Harmony and solution of world problems from Jain persepctive. - Prof. Sagarmal Jain, Page 29 page 31 I bid सूत्रकृतांग - 1/1/2/23 13 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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