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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति भागता है। 430 गीता में मन की चंचलता बताते हुए कहा गया है कि मन को निग्रहित करना, वायु को रोकने के समान अति कठिन है । 131 मन में विकल्प उठते रहते हैं। चंचल मन हर क्षण कुछ-न-कुछ पाने की चाह में आकुल या अशांत बना रहता है और यह अशांति ही तनाव की उपस्थिति की सूचक है । चित्त की आकुलता या असमाधि ही दुःख को जन्म देती है और यह दुःख की अनुभूति तनाव का ही एक रूप है। इसी दुःख - विमुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ध्यान -पद्धति को अपनाना चाहिए। व्यक्ति अपने तनाव को दूर करने के लिए सदैव प्रयत्न करता रहता है, इस हेतु वह भौतिक संसाधनों पर निर्भर रहता है, किन्तु इन संसाधनों की उपलब्धि न होना, या उपलब्धि होने पर भी अतृप्त बना रहना व्यक्ति को और अधिक तनावग्रस्त बना देता है, इसलिए आवश्यकता है- ध्यान- प्रक्रिया की । ध्यान- प्रक्रिया के बिना चित्तवृत्ति की चंचलता को शान्त करना संभव नहीं है। जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है। 432 चित्त का निरोध हो जाना ही तनावमुक्ति की अवस्था है, क्योंकि चित्तवृत्ति के निरोध से मन की चंचलता, इच्छाएँ, आकांक्षाएँ आदि समाप्त हो जाती हैं। योगदर्शन में योग को परिभाषित करते हुए लिखा है कि- चित्तवृत्ति का निरोध ही 'योग' है। जैन - परम्परा में सामान्यतया मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को योग कहा जाता है। 134 इसका अर्थ तो यह हुआ कि योग-निरोध ध्यान का लक्ष्य है । :. 433 228 जैन - परम्परा में मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं को योग कहा गया है और इनमें भी मन की प्रधानता होती है। जब मनयोग का निरोध हो जाता है, अर्थात् मन की चंचलता समाप्त हो जाती है, तो वचनयोग व काययोग स्वतः ही नियंत्रित हो जाते है। निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि 'योग' शब्द का अर्थ जैन- परम्परा और योगदर्शन में भले ही अलग-अलग हो, किन्तु दोनों का लक्ष्य चित्तवृत्ति का निरोध ही है। तनावमुक्ति के लिए मन की चंचलता को समाप्त करना आवश्यक ही है। योगदर्शन यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग 430 431 भगवद्गीता - 6 / 34 432 तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 27 433 गीता - 6/34 434 कायवाङ्मनः कर्म योगः । - तत्त्वार्थसूत्र - 6 / 1 उत्तराध्ययनसूत्र- 23/55-56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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