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भी कहा गया है कि जन्म-मरण से मुक्ति के लिए या दुःखों से पाने के लिए जीव पाप-क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं। 125
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
व्यक्ति तनावमुक्ति के लिए तनाव के कारणों का विश्लेषण करता हैं, वस्तुतः, तनावमुक्त व्यक्ति न सुखी होता है, न दुःखी । वह तो समभाव में रहकर आनंद व शांति का अनुभव करता है, क्योंकि वह विभावदशा का परित्याग कर देता है । स्व-स्वभाव में रही हुई आत्मा राग-द्वेष से रहित, अपने वश में की हुई इन्द्रियों और मन के द्वारा कार्य करती है, या भोग करती है, तब भी वह स्वयं को तनावमुक्त ही अनुभव करती है। ऐसी स्थिति में तब आत्मा निर्मल होती है और उसमें सम्पूर्ण दुःखों का अभाव होता है, उसे आनंद का अनुभव होता है, अर्थात् वह पूर्णतः तनावमुक्त और शांत होती हैं। अंत में हम यही कहेंगे कि आत्मा - परिशोधन के लिए विभावदशा या तनावयुक्त - दशा का परित्याग करने के लिए सुख - दुःख की खोज पदार्थों में न कर अपनी आत्मा में करना ही, अर्थात् स्व-स्वभाव में आना ही, जैनदर्शन में तनावमुक्ति का उपाय है।
दुःख, रोग, क्षुधा आदि के उपद्रवों में भी मन को विकल्पों से ऊपर उठाना, अपनी आत्मा का चिंतन करना' तनावमुक्ति का उपाय है। उत्तराध्ययनसूत्र में जब केशी ने गौतम से पूछा कि शत्रुओं को आपने कैसे जीता ? तब गौतम ने कहा -
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"एगे जिया जिया पंच, पच जिए जिया दस, दसहा उ जिवित्ताणं, सव्वसत्त जिणामहं । 426
अर्थात्, मैंने सर्वप्रथम एक मन को जीता और इससे चार कषायों पर विजय पा ली। इन पांच को जीतने से पांच इन्द्रियां भी विजित हो गईं। इस प्रक्रिया से सारे शत्रुओं पर विजय पा ली, अर्थात् अपने-आप पर विजय पा ली।
425 आचारांगसूत्र - आत्मारामजी म.सा. - 1/1/11
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उत्तराध्ययसूत्र - 23/26
छुटकारा
कहने का तात्पर्य यही है कि जिसने मन को जीत लिया, मन वंश में कर लिया, अर्थात् मन को अमन बना लिया, वह अपने स्व-स्वभाव को स्वतः ही प्राप्त कर लेता है, क्योंकि मन के अमन होते ही, आत्म-स्वभाव में स्थित होने के कारण कषाय, राग-द्वेष और
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