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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
करुणा व दया से शून्य होता है, वह दुष्ट, समझाने से भी नहीं मानने वाला होता है- ये कृष्ण-लेश्या के लक्षण हैं। 312 2. नील-लेश्या. इस लेश्या वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व पहले प्रकार की अपेक्षा कुछ ठीक तो होता है, किन्तु उसकी वृत्ति अशुभ व अशुद्ध ही होती है। ऐसा व्यक्ति भी अन्तर से तो दुर्भावनाग्रस्त ही होता है, परन्तु वह उसे बाहर प्रकट करने में संकोच करता है। इस व्यक्ति में वे सब दुर्गुण होते हैं, जो कृष्ण-लेश्या वाले व्यक्ति में होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि जो ईर्ष्यालु है, असहिष्णु है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, विषयासक्त है; धूर्त है, प्रमादी है, रसलोलुप है, जो आरम्भ में अविरत है, क्षुद्र है, दुःसाहसी है। इन दुर्गुणों से युक्त मनुष्य नीललेश्या वाला होता है। कृष्ण लेश्या और नील-लेश्या में अन्तर मात्र इतना है कि कृष्ण-लेश्या वाले की अभिव्यक्ति अति तीव्र होती है और नील-लेश्या वाले की तीव्रतम होती है। नील लेश्या वाला व्यक्ति अपनी स्वार्थवृत्ति की पूर्ति के लिए दूसरों का अहित अप्रत्यक्ष रूप से करता है। वह छल, कपट, मायाचार से अपनी वासनाओं की पूर्ति करता है। ऐसे व्यक्ति में भय की यह प्रवृत्ति होती है कि कहीं कोई उसे बुरा व्यक्ति न समझ ले। वह सदैव अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता है, दूसरे का हित भी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में इसका निम्न उदाहरण प्रस्तुत किया गया है -"जैसे बकरा पालने वाला बकरे को इसलिए नहीं खिलाता कि उससे बकरे का हित होगा, वरन् इसलिए खिलाता है कि उसे मारने पर अधिक मांस मिलेगा।
. ऐसा व्यक्ति अपनी दुष्प्रवृत्तियों के कारण तनावग्रस्त ही रहता है। उसकी सोच सदैव यह रहती है कि वह स्वार्थपूर्ति हेतु किस प्रकार से मायाचार करें। अपने स्वार्थों की पूर्ति होने पर भी ऐसे व्यक्ति को कभी संतुष्टि नहीं होती है, क्योंकि वह सदैव विषयभोगों में आसक्त बना रहता है। वह स्वयं तो अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के कारण तनावग्रस्त रहता ही है और मायाचार से दूसरों को भी गहरा आघात
312 गोम्मटसार, जीवकाण्ड - 509 313 उत्तराध्ययनसूत्र, 4/23-24 514 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन,
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