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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति योगी होता है। 301 इस मनोभूमि में दूसरे का अहित तो सम्भव होता है, लेकिन केवल उसी स्थिति में, जब दूसरा उसके हितों का हनन करने पर उतारू हो जाए। 152 5. पद्म - लेश्या - इस मनोभूमि में पवित्रता की मात्रा पिछली भूमिका की अपेक्षा अधिक होती है। इस शुभतर मनोवृत्ति से युक्त व्यक्ति में निम्न लक्षण पाए जाते हैं302 1. जाती हैं। 2. 3. 4. 1. 2. - क्रोध, मान, माया एवं लोभरूप अशुभ मनोवृत्तियाँ अतीव अल्प हो 6. शुभ - लेश्या - 3. 4. यह शुभतम् मनोवृत्ति है। पिछली मनोवृत्ति के सभी शुभ गुण इस अवस्था में भी विद्यमान रहते हैं, लेकिन उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है। इस लेश्या में निम्न लक्षण पाए जाते हैं - व्यक्ति संयमी तथा योगी होता है। वह अल्पभाषी, उपशांत एवं जितेन्द्रिय होता है । वह आत्मजयी एवं प्रफुल्लित चित्त वाला होता है । 301 302 व्यक्ति जितेन्द्रिय एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि अपने हित के लिए दूसरों को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता है। मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है। बिना किसी अपेक्षा के वह मात्र स्वकर्त्तव्य के परिपालन में सदैव जागरूक रहता है। सदैव स्वधर्म एवं स्वस्वरूप में निमग्न रहता है । 5. लेश्या और तनाव - उपर्युक्त वर्गीकरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अशुभ मनोवृत्तियाँ तीव्र तनाव का हेतु हैं और शुभ मनोवृत्तियाँ अल्प तनाव की अवस्था हैं। वस्तुतः, इन छह लेश्याओं में अंतिम तीन लेश्या ऐसी हैं, जिनमें तनाव अल्प मात्रा में ही उत्पन्न होते हैं। विशेष रूप से, उत्तराध्ययनसूत्र 34/27-28 उत्तराध्ययनसूत्र 34/29-30 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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