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________________ 146 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति आकांक्षा या गद्धि लोभ है। बाह्य-पदार्थों में, 'यह मेरा है -इस प्रकार की अनुराग-बुद्धि का होना ही लोभ कहलाता है। - लोभ एक मनोवृत्ति है। यह ऐसी मनोवृत्ति है, जो मन में रहे हुए सारे गुण (विवेकादि) या बुद्धि की कार्य करने की क्षमता या निर्णय -क्षमता को नष्ट कर देती है। लोभ-कषाय को क्रोध, मान व • माया-कषायों का जन्मदाता भी कह सकते हैं, क्योंकि जब लोभ या लालच होता है, तो उसकी पूर्ति करने के लिए कभी क्रोध का, तो कभी मान का और कभी माया का सहारा लेना ही पड़ता है। जब मन इन कषायों से युक्त होता है तो नियमतः वह तनाव उत्पन्न करता है। ऐसे में तनाव का स्तर भी तीव्रतम होता है। लोभ के उदय से चित्त में पदार्थों की प्राप्ति के लिए वासना उत्पन्न होती है। यह वासना जब तक पूरी नहीं होती, व्यक्ति का मन विचलित रहता है। लोभ का स्वरूप बताते हुए आचारांगसूत्र में कहा गया है -सुख की कामना करने वाला लोभी बार-बार दुःख को प्राप्त करता है। प्रशमरति में लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है,189 वस्ततः, लोभ-कषाय एक प्रकार से किसी की प्राप्ति की इच्छा है और जहां प्राप्ति की इच्छा है, या चाह है, वहां चिंता है और जहां चिंता है, वहां नियमतः तनाव रहता ही है। इस प्रकार, लोभवृत्ति भी व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाती है। लोभवृत्ति के कारण व्यक्ति अपने में अपूर्णता का बोध करता है और जहां अपूर्णता का बोध है, वहां तनाव अवश्य होता है। जब तक व्यक्ति लोभ अथवा इच्छाओं का निरोध नहीं करता है, तब तक वह तनाव में रहता है, क्योंकि वह अपने में एक कमी का अनुभव करता है और बाह्य-जगत से उसकी पूर्ति की अपेक्षा रखता है। ये दोनों ही स्थितियाँ तनाव को जन्म देती हैं। कमी की अनुभूति में पूर्ति की चाह उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण बनती है, क्योंकि सामान्य रूप से भी यह माना जाता है कि जहां इच्छा या लालसा होती है, वहां जब तक उसकी पूर्ति न हो जाए, चिंता रहती है और चिंता का अर्थ ही है मन का अस्थिरे होना अथवा विचलित या परेशान होना और 284 अनुग्रह प्रवणद्रव्याधभिकाड.क्षावेशो लोभः । -राजवार्तिक, 8/9/6/574/32 285 ब्राह्मार्थेषु ममेदं बुद्धिर्लोभः। - धवला, 12/4 286 अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-6, पृ. 755 287 सहट्ठी लालप्पभाणे सएण दुक्खेण मूढ़े विप्परियासमवेति...। - आचारांगसूत्र, अ.2, उ.6, सु. 151 288 सर्व विनाशाश्रायिण ......। -प्रशमरति, गाथा-29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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