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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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भगवतीसूत्र व कर्मग्रन्थों के आधार पर कषायों की चर्चा -
तनाव की उत्पत्ति के प्रमुख रूप में तीन कारण होते हैं - 1. बाह्य-परिस्थिति, 2. व्यक्ति की मनोवृत्ति और 3. बाह्य-परिस्थिति और मनोभाव के संयोग से उत्पन्न । चैतसिक-अवस्थाएँ। इनमें बाह्य-परिस्थितियाँ पूर्णतः व्यक्ति के अधिकार में नहीं होती हैं, अतः उनसे उत्पन्न तनाव का निराकरण तो उन परिस्थितियों के निवारण से ही सम्भव है, किन्तु जहाँ तक मानसिक कारणों का प्रश्न है, वे मूलतः इच्छाओं, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं अथवा उनकी पूर्ति न होने के कारण होते हैं। इनके मूल में कहीं-न-कहीं क्रोध, मान, माया और लोभ की वृत्ति भी कार्य करती है। इसे भी यदि संक्षिप्त करके कहें, तो उनमें भी राग व द्वेष- ये दो ही मूल कारण हैं। राग की उपस्थिति में द्वेष का जन्म होता है और राग व द्वेष की वृत्तियों से क्रोध, मान, माया और लोभ- ये चार कषायें जन्म लेती हैं। ये कषायें ही मूलतः तनाव-वृद्धि और अशुभ लेश्या का कारण होती हैं। जैन धर्म दर्शन में इन कषायों को ही दुःख का मूलभूत कारण माना गया है। ये व्यक्ति की आध्यात्मिक क्षमताओं को क्षीण कर देती हैं और व्यक्ति तनावग्रस्त बन जाता है, अतः तनावों की इस विवेचना में कषायों के स्वरूप को समझना भी आवश्यक है।
जैन आगम-साहित्य में कषायों की विस्तार से चर्चा भगवतीसूत्र और कर्म–साहित्य के ग्रंथों में मिलती है। आगे, इन दोनों ग्रन्थों के आधार पर उन्हें स्पष्ट करेंगे। भगवतीसूत्र में कषायों की चर्चा एवं तनाव -
भगवतीसूत्र में कषायों की चर्चा करते हुए उनके विभिन्न पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। उसमें चारों कषायों के पयार्यवाची नाम निम्न रूप से उपलब्ध होते हैं - 1. क्रोध - आवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था क्रोध है। 2. कोप - क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चंचलता कोप है। यह चित्तवृत्ति प्रणय और ईर्ष्या से उत्पन्न होती है। भगवतीसूत्र के अनुसार, क्रोध के उदय को अधिक सघन अभिव्यक्ति न देकर उसे दीर्घकाल तक
235 भगवतीसूत्र, श. 12. उ. 5. सू.2
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