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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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__ 1. ज्ञान-चेतना, 2. कर्म-चेतना और 3. कर्मफल-चेतना। ज्ञान-चेतना एवं तनावमुक्ति -
. ज्ञानचेतना का तात्पर्य होने वाली विविध संवेदनाओं की अनुभूति से है। यह चेतना श्वास-प्रेक्षा से लेकर शरीर की संवेदनाओं की चेतना तक मानी जा सकती है। इसमें विविध प्रकार के संवेदन होते हैं, इनको देखा जाता है या उनकी प्रेक्षा की जाती है। चेतन शरीर का जब बाह्य जगत से इन्द्रियों के माध्यम से सम्पर्क होता है, तो उसके परिणामस्वरूप उसमें विविध प्रकार की संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। उन संवेदनाओं के प्रति सजगता ही ज्ञान-चेतना है। जब व्यक्ति में संवेदनाओं के प्रति सजगता आती है, तो वह तनाव को उत्पन्न करने वाली स्थिति को वहीं रोक देता है और शुद्ध स्वभाव में परिणमन करने लगता है। यह शुद्ध स्वभाव ही तनावमुक्ति की अवस्था है। कर्म-चेतना एवं तनाव -
जब विभिन्न प्रकार के पदार्थ इन्द्रियों के सम्पर्क में आते हैं, तो उनके निमित्त से अनेक प्रकार की अनुभूति या संवेदनाएं जन्म लेती हैं। इन संवेदनाओं और अनुभूतियों को सजगतापूर्वक अनुभव करना या देखना ज्ञान-चेतना है, किन्तु जब इन अनुभूतियों के प्रति अनुकूलता या प्रतिकूलता का भाव जाग्रत होता है, तो उन्हें पाने या दूर करने की इच्छा का जन्म होता है। यह इच्छा या संकल्प ही कर्मचेतना कही जाती है। इसके अन्तर्गत ऐसा हो, ऐसा न हो, यह मिले, यह न मिले, इसका पुनः-पुनः संवेदन हो, इसका संवेदन कभी न हो आदि चित्तवृत्तियाँ होती हैं। ये वृत्तियाँ ही कर्मचेतना कहलाती हैं। वस्तुतः, ज्ञान-चेतना प्राणी के बंधन का कारण नहीं होती, किन्तु जब वह ज्ञान-चेतना, इच्छा या आकांक्षा का रूप ले लेती है, तो वह कर्म-चेतना बन जाती है। यह कर्म-चेतना विकल्परूप होने के कारण बंधन का हेतु होती है। जो बंधन का हेतु है, वही तनाव का भी हेतु है। इस प्रकार, ज्ञान-चेतना विशुद्ध आत्म-चेतना है, तो कर्मचेतना विकल्पित होने के कारण नए कर्म का बंध करती हैं। ज्ञान-चेतना में मात्र ईर्यापथिक-आश्रव होता है, जबकि कर्म चेतना से साम्परायिक आश्रव होता है और यह साम्परायिक-आश्रव ही कर्मबंध और तनाव का हेतु बनता है। कर्मचेतना तनाव को जन्म देती
-- ब) "ज्ञानाऽस्या चेतना बोध : कर्माख्याद्विष्टरक्ता।
: जन्तोः कर्मफलाऽख्या, सा वेदना व्यपदिश्यते।। - अध्यात्मसार, आत्मनिश्चयाधिकार -45
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