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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
मनोविज्ञान की दृष्टि से क्रमशः 1. तनावयुक्त, 2. तनावमुक्ति की ओर अभिमुखता और 3. पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था कह सकते हैं। बहिरात्मा एवं तनाव -
__संसार में राग-द्वेष और तदजन्य कषायों से युक्त व्यक्ति तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। यही बहिरात्मा रूप प्रथम अवस्था है। बहिरात्मा देहात्मा, बुद्धि और मिथ्यात्व से युक्त होता है।2017 यह अवस्था आत्मा की संसार में अनुरक्तता की या उसकी विभाव-दशा की सूचक है और विभाव-दशा ही तनावयुक्त दशा है, अतः तनावमुक्ति के लिए सर्वप्रथम बहिरात्मा के लक्षण व स्वरूप को समझकर उन्हें त्यागना आवश्यक है, क्योंकि जो बहिरात्मा के लक्षण हैं, वे ही तनाव के मुख्य कारक हैं। उन कारक तत्त्वों को समझकर त्यागने से ही व्यक्ति साधक बन सकता है और साधना से परमात्मा की अवस्था को प्राप्त कर सकता है। जैनदर्शन के अनुसार, तनाव का मुख्य कारण पर-पदार्थों में राग-द्वेष-भाव रखना है। ऐसा तनावयुक्त अवस्था में होता है, क्योंकि यदि वांछित वस्तु उपलब्ध नहीं है, तो उसकी प्राप्ति की चाह से तनाव उत्पन्न होगा। यदि वह प्राप्त है, तो उसका वियोग न हो- इसकी चिन्ता रहेगी। ऐसी आत्मा की तनावयुक्त अवस्था को ही बहिरात्मा कहते हैं, क्योंकि जैन आचार्यों के अनुसार, जो सांसारिक-विषय भोगों में रत रहते हैं और पर-पदार्थों में अपनेपन का आरोपण कर राग-द्वेष का भाव रखते हैं, उन्हें ही बहिरात्मा कहा जाता है। साध्वी प्रियलताश्री ने भी अपने शोध-प्रबन्ध में शोध कर यही वर्णित किया है कि "जो सांसारिकविषय भोगों में रत रहते हैं और उन्हें ही अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझते हैं और उन पर-पदार्थों में अपनेपन का आरोपण कर उनके भोग में जो आसक्त बने रहते हैं, उन्हें ही बहिरात्मा कहा जाता है। 02
चाहे बहिरात्मा हो या आत्मा की तनावयुक्त अवस्था- दोनों का ही स्वरूप एवं लक्षण व्यक्ति की जीवनदृष्टि पर ही आधारित होते हैं। जो अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भूलकर इन्द्रिय, मन और बाह्यपदार्थों को अपना मानती है, वही बहिरात्मा है और जो इन इन्द्रियों के विषयों आदि में आसक्त होकर उनसे उत्पन्न कामनाओं को पूर्ण करने में ही अपना जीवन व्यतीत करता है एवं उसी में भ्रान्तिवश सुख का
201 मोक्खपाहुड - 5, 8, 10, 11 202 त्रिविध आत्मा की अवधारणा, साध्वी प्रियलताश्री, पृ. 179
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