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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ६५ विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जैसे महासागर में नदियाँ विलीन हो जाती हैं । (चार्ट पृष्ठ ६६-६७ पर देखें ) आगम वचन - अण्णाणपरिणामेणं तिविहे पण्णत्ते-मइ अण्णाणपरिणामे, सुयअण्णाण परिणामे, विभंगणाण परिणामे । - प्रज्ञापना पद २३, ज्ञान परिणाम विषय स्थानांग सूत्र, स्थान ३,उ. ३, सुत्र २८७ मिच्छासुयं-अण्णाणिएहिं मिच्छादिदि ठएहिं सच्छन्दबुद्धिमइ विगप्पिअं ___ - नंदीसूत्र, सूत्र ४२ (अज्ञान परिणाम तीन प्रकार का कहा गया है- (१) मति अज्ञान (कुमति) (२) श्रुत अज्ञान (कुश्रुति) और (३) विभंगज्ञान (कुअवधिज्ञान) मिथ्याश्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा स्वच्छन्दबुद्धि से कल्पित (पदार्थज्ञान...) विपरीत ज्ञान और विपरीतता के हेतु मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ।३२। सदसतोरविसेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥३॥ (१) मति, (२) श्रुत और (३) अवधि- ये तीन ज्ञान विपरीत भी होते हैं । सत् और असत् पदार्थों के भेद का ज्ञान (अविशेषात्) नहीं होने से स्वेच्छा से चाहे जैसा (यद्वा-तद्वा-सही गलत) जानने के कारण मदमत्त के (उन्मत्तवत्) समान ये ज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं । - विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों में विपरीत ज्ञानों के नाम और इनकी विपरीतात के कारण बताये गये हैं । विपरीत ज्ञान तीन हो सकते हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, और विपरीतता के कारण बताये गये हैं । विपरीत ज्ञान तीन हो सकते हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, और विपरीतात के हेतु है, सत्यासत्य विवेक का अभाव तथा मत्त के समान उल्टा-सीधा अपनी इच्छा से वस्तु को जानना, देखना, समझना और उसी के अनुसार अपनी धारणा तथा विश्वास बना लेना । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विपरीतता अथवा अज्ञान लौकिक दृष्टि की अपेक्षा नहीं माना गया है; अपितु आध्यात्मिक दृष्टि की अपेक्षा माना गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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