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६० तत्त्वार्थ सूत्र
किन्तु विपुलमति इन सबको और अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता है ।
साथ ही इन दोनो में एक प्रमुख भेद और भी है कि ऋजुमति ज्ञान एक बार उपलब्ध होकर विलुप्त भी हो सकता है किन्तु विपुलमति की परिणति अवश्यमेव केवलज्ञान में होती हैं ।
कर्मसिद्धान्त की भाषा में विपुलमति मनःपर्यायज्ञानधारी आत्मा उसी भव में क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञानी बनता है और संसार से मुक्त हो जाता है ।
यहां यह ज्ञातव्य है कि मनोविज्ञान-मनोवैज्ञानिक तथा मनःपर्यायज्ञानी में आकाश -पाताल का अन्तर हैं । .
- मनोविज्ञान तो श्रुतज्ञान पर ही आधारित हैं । अनुभवी व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति की मुख-मुद्रा- हाव-भाव, शरीर और मुख पर आये तनावों परिवर्तनों आदि से उसके मनोगत भावो का अनुमान लगाता है । मनोवैज्ञानिक जितना ही अनुभवी होगा उसका अनुमान उतना ही सच्चा हो जायेगा । यह तो एक प्रकार से कर्मजाबुद्धि का परिणाम है । . । मनोवैज्ञानिक मिथ्यादृष्टि भी हो सकता है ।
जबकि मनःपर्यायज्ञान बिल्कुल ही अलग है । यह अनुमान नहीं लगाता, अपितु प्रत्यक्ष जानता है ।
मनःपर्यायज्ञानी निश्चित रूप से सम्यक्त्वी और संयत ही होता है ।
अतः मनःपर्यायज्ञानी और मनोविज्ञान को एक समझ लेना, बहुत बड़ा भ्रम है । आगम वचन -
...इड्ढीपत्त अप्पमत्त संजयसम्मदिठिपज्जत्तग संखेज्जवासाउअ कम्मभूमिअ गब्भवकं तिअ मणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुप्पजइ ।
- नन्दीसूत्र मनःपर्यवज्ञानाधिकार - (मनः पर्यायज्ञान केवल उन जीवों को ही होता है जो गर्भज मनुष्य हों, कर्मभूमि के हों, संख्यात वर्ष की आयु वाले हों, पर्याप्त हों, सम्यग्दृष्टि हों, सप्तम गुणस्थान वाले संयमी हों और ऋद्धिधारी हों ।) अधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान में भेद -
विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः । २६ ।
(१) विशुद्धि, (२) क्षेत्र, (३) स्वामि और (४) विषय की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान में अन्तर- भेद है ।
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