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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ५१ (५) क्षिप्र - क्षयोपशम की निर्मलता से शब्द आदि का शीघ्र ग्रहण (६) अक्षिप्र - शब्द आदि को विलम्ब अथवा देरी से ग्रहण करना (७) अनिश्रित - वस्तु को बिना चिन्हों के ही जानने की क्षमता (८) निश्रित - किसी पदार्थ को उसके चिन्हों से जानना । (९) असंदिग्ध - पदार्थ का संशय रहित ज्ञान । (१०) संदिग्ध - वस्तु को जानने में संशय रह जाना । असंदिग्ध और संदिग्ध को अनिश्चित तथा निश्चित भी कहा जाता है । इन दोनों शब्दों का भाव एक समान ही हैं । (११) ध्रुव - इसका अभिप्राय अवश्यंभावी भी हैं । अर्थात् जो मतिज्ञान एक बार ग्रहण किये हुए अर्थ को सदा के लिए स्मृति में धारण किये रहे । (१२) अध्रुव - जो ज्ञान सदा काल स्मरण न रहे, न्यूनाधिक होता रहे, अथवा विस्मृत हो जाय, वह अध्रुव कहलाता है । ये सभी भेद विषय एवं उसे ग्रहण करने की क्षमता की अपेक्षा हैं । सभी प्राणियों में बुद्धि की तरतमता रहती है । कुछ तीव्र बुद्धि वाले एक ही संकेत मात्र से अनेक वस्तुओं का ज्ञान कर लेते हैं, तथ्यों की गहराई में उतरकर परोक्ष घटना का भी आँखो देखा जैसा वर्णन कर देते हैं । रोजमर्रा के व्यवहार में हम इस प्रकार की बौद्धिक विलक्षणता व चतुराई की घटनाएं देखते/सुनते हैं । __ इन बारह भेदों में बुद्धि की इसी तरतमता का सूचन किया गया है । मनोविज्ञान की दृष्टि से ये भेद काफी महत्व के हैं । जो प्राणी की बौद्धिकता के थर्मामीटर का काम कर सकते हैं । आगम वचन - उग्गेहे दुविहे पण्णत्तेअत्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य । वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते - अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते - - नंदी सूत्र, सूत्र २७, २८,२९ अवग्रह दो प्रकार का है - (१) अर्थावग्रह और (२) व्यंजनावग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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