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२६ तत्त्वार्थ सूत्र
___ इन २५ मल-दोषों से अपने सम्यक्त्व को बचाकर उसे विशुद्ध रखना सम्यक्त्वी का परम कर्तव्य है । विशुद्ध सम्यग्दर्शन तीर्थकर गोत्र बंधने का निमित्त भी बनता है ।
(देखिये तालिका पृष्ठ २७ से ३० पर)
सम्यक्त्व के बाह्य लक्षण : ___ कोई मनुष्य सम्यक्त्वी है या नहीं, यह उसके बाह्य व्यवहार से भी जाना जा सकता है ।
तथ्य यह है कि सम्यक्त्व के प्रभाव से आत्मा में जो आंतरिक परिवर्तन होते हैं, वृत्ति-प्रवृत्ति-रुचियों में जो अन्तर आता है, वह उसके बाह्य व्यवहार में परिलक्षित होने लगता है । शास्त्रों में ऐसे पांच प्रमुख लक्षण बताये गये हैं - (१) प्रशम, (२) संवेग, (३) निर्वेद, (४) अनुकम्पा और (५) आस्तिक्य ।
(१) प्रशम - 'शम' शब्द प्राकृत के 'सम' शब्द का संस्कृत रूपान्तर है । प्राकृत 'सम' के संस्कृत में तीन रूप बनते हैं - सम, शम और श्रम।
'सम' का अभिप्राय है समता, सभी प्राणियों को अपने ही समान समझना । 'शम' का अभिप्राय क्रोधादि कषायों का निग्रह, उनकी ओर रुचि का अभाव तथा मिथ्याग्रह, दुराग्रह का शमन और सत्यग्राही मनोवृति का निर्माण । 'श्रम' यहां पुरुषार्थ और परिश्रम दोनों ही रूपों को धोतित करता है । सम्यक्त्वी अपनी आत्मा की उन्नति के लिए किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा न करके, स्वयं ही पुरुषार्थ करता है और परिश्रम करके मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होता है ।
सम्यक्त्वी में 'सम' शब्द से द्योतित तीनों गुण होते हैं ।
(२-३) संवेग और निर्वेद - संवेग का अभिप्राय है - मोक्ष प्राप्ति की इच्छा, आत्म-परिणामों का वेग मोक्ष-मार्ग की ओर होना तथा निर्वेद संसार एवं सासंसारिक क्रिया-कलापों की ओर विमुखता-अरुचि का भान कराता ह।
सम्यक्त्वी भी सांसारिक क्रियाओं को कर्तव्य समझकर करता हैं, उसकी आंतरिक रुचि उधर नहीं होती, अपितु उसके हृदय में तो सदैव अपनी मुक्ति की भावना चलती रहती है ।
(४) अनुकम्पा - अन्य पीड़ित प्राणियों को देखकर सम्यक्त्वी के हृदय में कम्पन हो उठता है, वह उनकी पीड़ा मिटाने का प्रयास करता है, चाहता है, यह सुखी हो ।
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