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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग २५ भाव में स्थिर करना, अपनी आत्मा का स्थिरीकरण है । (७) वच्छलता (वात्स्ल्य) - साधर्मी भाइयों के प्रति निःस्वार्थ स्नेहभाव रखना, जीव मात्र के प्रति करुणा व निजत्व की अनुभूति करना । जैसे गौ अपने वत्स (बछड़े) के प्रति स्नेह रखती है उसी प्रकार अपनी आत्मा के हितकारी ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि भावों के प्रति विशेष अनुराग रखना स्वात्म-वत्सलता है । (८) पभावणा (प्रभावना) - धर्म एवं संघ की उन्नति/अभ्युदय के लिए चिन्तन करना, ऐसे प्रयत्न करना जिससे धर्म का प्रचार हो, अन्य लोग प्रभावित हों तथा रत्नत्रय की प्रकृष्ट भावना से अपनी आत्मा को भावित प्रभावित करना । ( इन आठों अंगों से सम्यक्त्व को शक्तिशाली बनाया जा सकता है ) __आठ मद १. कुल (पितृपक्ष), २. जाति (मातृपक्ष), ३. बल (शारीरिक मानसकिबौद्धिक शक्ति), ४. रूप (शरीर सौन्दर्य), ५. लाभ (अधिक वस्तु की प्राप्ति), ६. वैभव (ऐश्वर्य आदि सामग्री तथा पूर्वजों द्वारा संचित धन, रत्न आदि), ७. तप और ८. ज्ञान-इन बातों का तथा अन्य किसी भी उपलब्धि का घमंड सम्यक्त्वी नहीं करता । यदि उसे किसी बात का गर्व हो जाता है तो वह सम्यक्त्व का मल अथवा दोष बन जाता है । सम्यक्त्वी गंभीर होता है उसमें छिछोरापन नहीं होता । कर्मसिद्धान्त के अनुसार स्थिति यह है कि सम्यक्त्वी नीच गोत्र का बन्ध नहीं करता और अभिमान से नीच गोत्रकर्म का बन्ध होता है। अतः इस तथ्य को जानकर सम्यक्त्वी कभी भी गर्व नहीं करता । . लौकिक दृष्टि से भी अभिमान पतन का कारण हैं । षट् अनायतन आयतन का अर्थ होता है-आश्रयस्थान अथवा संग-साथ, तथा अनायतन का अर्थ इसका विलोम उलटा है अर्थात् जो आश्रय स्थान नहीं है । सम्यक्त्वी के लिए शास्त्रों में ऐसे ६ अनायतन - आश्रय न लेने योग्य स्थान बताये गये हैं - (१) मिथ्यादर्शन (२) मिथ्याज्ञान (३) मिथ्याचारित्र और इन तीनों के अनुयायी - (४) मिथ्यादर्शनी (५) मिथ्याज्ञानी (६) मिथ्याचारित्री । सम्यक्त्वी को न तो इनकी प्रशंसा ही करनी चाहिए और यहां तक कि इनका साथ भी छोड़ देना चाहिए, अन्यथा संगति-दोष से उसके सम्यक्त्व के दूषित होने की संभावना हो सकती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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