SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवर तथा निर्जरा ४५९ भाव के भेद से दो प्रकार का है । चारित्रगुण भावलिंग है और द्रव्यलिंग बाह्य वेश आदि है । पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थों में भावलिंग अर्थात् चारित्रगुण तो अवश्य होता है; किन्तु द्रव्यलिंग की भजना है - होता भी है, नहीं भी होता है और विभिन्न प्रकार का भी होता है। (६) लेश्या कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है । यह छह प्रकार की है - (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेजो (५) पद्म और (६) शुक्ल । - पुलाक के अन्तिम तीन (तेजो, पद्म और शुक्ल) लेश्या होती है। बकुश और प्रतिसेवना-कुशील में सभी लेश्या होती है। परिहारविशुद्धि संयम वाले कषाय - कुशील को अन्तिम तीन और सूक्ष्मसंपराय संयम वाले कषाय - कुशील को सिर्फ एक शुक्ललेश्या ही होती है। निर्ग्रन्थ और संयोगी केवली - स्नातक को सिर्फ शुक्ललेश्या तथा अयोगी केवली जिन अलेश्यलेश्या रहित होते हैं। (७) उपपात उपपात का अर्थ उत्पत्ति अथवा जन्म है । यहाँ यह बताया गया है कि आयु पूर्ण होने पर निर्ग्रन्थ कहाँ-कहाँ उत्पन्न होते हैं । उत्कृष्टता की अपेक्षा से पुलाक सहस्रार कल्प में २० सागर की आयु वाले देव बनते हैं, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील आरण और अच्युत कल्प में २२ सागर की स्थिति वाले, कषाय-कुशील और निर्ग्रन्थ सर्वार्थसिद्ध में ३३ सागर की स्थिति वाले देव बनते हैं । जघन्यता की अपेक्षा पुलांक, बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ यह चारों ही पल्योपमपृथक्त्व स्थिति वाले देवों में सौधर्म कल्प में देव बनते हैं । स्नातकों का उपपात नहीं होता, क्योंकि वे जन्म-मरण की परम्परा को समाप्त कर चुके होते हैं, उनका निर्वाण होता है, वे सिद्ध हो जाते हैं। I (८) स्थान 'स्थान' का अभिप्राय यहाँ संयम के स्थान - - कोटियाँ अथवा दर्जे है । वस्तुतः कषाय और योगो का निग्रह ही संयम है । कषायों तथा योगों की तरतमता चूँकि असंख्यात प्रकार की है अतः स्थान ( संयम - स्थान) भी असंख्यात प्रकार के हैं, इनके असंख्यात भेद-प्रभेद हैं । Jain Education International - इनमें जहाँ तक कषाय का आत्मा के साथ सम्बन्ध रहता है, वहाँ तक के संयमस्थान कषायनिमित्तक कहलाते हैं और जहाँ सिर्फ योग का ही सम्बन्ध रह जाता है, वे संयमस्थान योगनिमित्तक कहलाते हैं। और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy