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४५८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ४८-४९ होते हैं, यानी इनके चार संयम होते हैं । निर्ग्रन्थ और स्नातक सिर्फ एक यथाख्यात संयम वाले होते हैं ।
विशेष - यहाँ 'संयम' को चारित्र का पर्याय मान लिया गया है । क्योंकि सूत्रकार स्वयं इसी अध्याय के सूत्र १८ में सामायिक आदि को चारित्र कह चुके हैं ।
(२) श्रुत - श्रुत का अभिप्राय ज्ञान है। इसके लक्षण और भेद प्रथम अध्याय में बताये जा चुके हैं ।
पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील अधिक से अधिक अभिन्नाक्षर दशपूर्व के ज्ञाता होते हैं और कषाय कुशील तथा निर्ग्रन्थ चौदह पूर्व के ।
पुलाक कम से कम आचार प्रकल्प पूर्व (नवें पूर्व) के तीसरे प्रकरण आचार वस्तु के ज्ञाता होते हैं तथा बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थ कम से कम आठ प्रवचन माता (तीन गुप्ति और पाँच समिति) के ज्ञाता होते हैं ।
स्नातक तो श्रुतातीत होते ही है; क्योंकि वे सर्वज्ञ होते है।
(३) प्रतिसेवना - प्रतिसेवना का अभिप्राय विराधना अथवा दोषसेवन है । इसका यहाँ अभिप्राय व्रतो में दोष लगाने से है ।
यद्यपि साधु को अहिंसा आदि पाँच मूल गुण और छठा रात्रिभोजनविरमण व्रत अखण्डित रखना चाहिए किन्तु किसी अन्य के अभियोग या दबाव से पुलाक उनमें भी दोष लगा लेता है, यथा-मूल गुणों में दोषसेवन कर ले अथवा रात्रि भोजन कर ले ।
उपकरण-बकुश उपकरणों के संस्कार-सज्जा तथा शरीर-बकुश शरीर के संस्कार के कारण प्रतिसेवना या दोष लगा लेता है।
प्रतिसेवना - कुशली मूलगुणों को तो अखण्डित -निर्दोष रखता है, किन्तु उत्तरगुणों में दोष लगा लेता है।
कषाय-कशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक बिलकुल भी दोष-सेवन नहीं करते । वे मूल और उत्तरगुणों की विराधना नहीं करते ।
(४) तीर्थ - तीर्थ का अभिप्राय तीर्थंकरों द्वारा धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन
यह पाँचों प्रकार के निर्ग्रन्थ सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में होते हैं । किन्तु कुछ आचार्यों का अभिमत है कि पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील तो तीर्थ में ही होते हैं और कषाय-कुशील, निर्ग्रन्थ तथा स्नातक तीर्थ में भी होते हैं और अतीर्थ में भी होते हैं ।
(५) लिंग - लिंग का अभिप्राय है चिन्ह, लक्षण । यह द्रव्य और
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