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________________ ४५० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ३९-४६ __(२) मार्दव - मानविजेता बन जाना, उदय में आये मान को निष्फल कर देना, मन-मस्तिष्क में मान सम्बन्धी विचार भी न आने देना ।। (३) आर्जव - आर्जव का अर्थ ऋतुजा अथवा सरलता है । शुक्लध्यानी जीव के मन-वचन-काय तीनों योग अत्यन्त सरल होते है। (४) मुक्ति- मुक्ति का अर्थ यहाँ लोभ का अभाव है । शुक्लध्यानी जीव लोभविजेता होता है। उसके मन में लोभ के विचार नहीं होते । इन चार अवलम्बनों से शुक्लध्यान में जीव प्रगति करता है। शुक्लध्यान की चार भावनाएँ - भावना अथवा अनुप्रेक्षा एक ही अर्थ को धोतित करती हैं । अपने चंचल मन को स्थिर करने के लिए शुक्लध्यान का साधक चार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करता है (१) अनन्तवर्तित-अनुप्रेक्षा - अनन्तभव परम्परा का चिन्तनमनन । अर्थात् यह चिन्तन करना कि मैने इस संसार मे अनन्त बार जन्मरमरण किया है, अनन्त बार परिभ्रमण किया है ।। (२) विपरिणामानुप्रेक्षा - वस्तुओं के परिणमनशील स्वभाव पर चिन्तन करना कि सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील है, शुभ अशुभ में परिणत हो जाती हैं और अशुभ शुभ में । सभी वस्तुएँ न ग्रहण करने योग्य हैं, न छोड़ने योग्य अर्थात् अहेयोपादेय है । इस भावना के प्रभाव से साधक में अनासक्ति भाव दृढ़ हो जाता है। (३) अशुभानुप्रेक्षा- संसार के अशुभ स्वभाव पर चिन्तन-मनन करना । - इस भावना के प्रभाव से निर्वेद भाव दृढ़ होता है। ) (४) अपायानुप्रेक्षा - अपाय दोष को कहा जाता है । कर्मबंधन के दुःखदायी स्वभाव पर गहराई से चिन्तन करना । इस भावना के प्रभाव से साधक आत्मभाव में तल्लीन होता है । इन चारों अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन-मनन से साधक का चंचल मन स्थिर हो जाता है, उसकी चित्तवृत्तियाँ अन्तर्मुखी बन जाती है, मन में वैराग्य दृढ़ हो जाता है, आत्मलीनता बढ़ जाती है। इस सभी तपों (बाह्य और आभ्यन्तर तप) से संवर भी होता है। और निर्जरा भी होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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