SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संवर तथा निर्जरा ४४९ अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर यह ध्यान होता है। (४) व्युपरत क्रियाऽनिवृत्ति - जब सर्वज्ञ भगवान श्वासोच्छ्वास का भी निरोध करके अयोगि बन जाते हैं, तब उनके आत्म-परिणाम निष्कम्प हो जाते हैं, यानी योगजन्य चंचलता नहीं रहती, वे शैलेशी दशा को प्राप्त हो जाते हैं । उस समय की आत्म-प्रदेशों तथा आत्म-परिणति को व्युपरत क्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान कहा गया है। इस ध्यान की दशा में कर्मों का समूल नाश हो जाता है और परम शुद्ध आत्मा सिद्धालय पर जा विराजती है। अरिहंत भगवान सिद्ध बन जाते है। शुक्लध्यानके इस तीसरे और चौथे भेद में वितर्क यानी श्रुत के आलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती; सिर्फ पहले और दूसरे शुक्लध्यान में ही श्रुत का आलम्बन आवश्यक हैं । शुक्लध्यान के चार लिंग - लिंग, चिन्ह अथवा लक्षण - यह तीनों शब्द एकार्थवाची है । जिन चिन्हों के आधार पर शुक्लद्यानी जीव को पहचाना जा सकता है, वे चार यह है - (१) अव्यथ - उपसर्गों-घोरातिघोर उपसर्गों में भी आत्मस्थिति स्वात्मभाव से विचलित न होना । (२) असम्मोह - सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों मे भी भ्रांतचित्त न होना और देवादिकृत माया, इन्द्रजाल आदि से भी सम्मोहित न होना । (३) विवेक - आत्मा और शरीर आदि का दृढ भेदविज्ञान, सर्वसंयोगों को आत्मा से भिन्न समझना, हेय-ज्ञेय-उपादेय का वास्तविक और विवेकपूर्ण निश्चल ज्ञान होना । (४) व्युतर्ग - · व्युत्सर्ग का अर्थ निःसंगता अथवा असंगता है । देह और अन्य सभी प्रकार की उपधि, उपकरण आदि का निस्सांता रूप त्याग । शुक्लध्यान के चार अवलंबन - शुक्लध्यान मोहक्षमहल का अन्तिम सोपान है । इस सोपान तक पहुंचने के लिए चार अवलम्बन बताये गये है (१) क्षमा - क्रोध के निमित्त मिलने पर भी क्रोध न करना तथा उदय में आये हुए क्रोध के आवेग को भी निष्फल कर देना, चित्त मे तनिक भी क्षोभ का प्रवेश न होने देना, उत्तम क्षमा से सराबोर रहना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy