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________________ संवर तथा निर्जरा ४२७ शरीर को अनुशासित विभिन्न प्रकार के आसनों से और साधनाओं से किया जाता है । काय -क्लेश तप में स्वेच्छा से केशलौंच, आसन, आतापना आदि ली जाती है। इसी के अन्तर्गत प्राणायाम का अभ्यास आता है। यद्यपि आसन बहुत हैं, किन्तु अपने शरीर की शक्ति और परिस्थिति के अनुसार आसन अपनाकर इस तप के मूल उद्देश्य ( शरीर को चंचलता रहित, स्थिर और निश्चल बनाने ) को प्राप्त किया जाता है । (तालिका पृष्ठ ४२६ पर देखें) आभ्यन्तर ( अन्तरंग ) तप (१) प्रायश्चित्ततप पापों की अथवा दोषो की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला तप अथवा भूलशोधन- पापशोधन की साधना । (२) विनयतप - गुरुजनों तथा अपने से छोटों के प्रति आदरऔर सन्मान; बड़ों के प्रति विनम्रता और छोटों के प्रति स्नेह वात्सल्य । वस्तुतः विनयतप से मान विगलितो हात है बहुमान यह तप मान-अभिमान को विजय करने की साधना है । (३) वैयावृत्त्यतप निःस्वार्थ और अग्लान भाव से गुरु, जेष्ठ साधु, वृद्ध, रोगी, आदि की सेवा - परिचर्या करना । (४) स्वाध्याय स्वाध्याय शब्द के निर्वचन कई प्रकार के किये - - गये हैं 'सु' - सुष्ठु - भली भाँति, 'आङ्' मर्यादा के साथ अध्ययन को . स्वाध्याय कहा जाता है । अपने आप ही अध्ययन करना, स्वस्यात्मोऽध्ययनम् अपनी आत्मा का अध्ययन करना । स्वेन स्वस्य अध्ययनं अपने द्वारा अपनी आत्मा का अध्ययन। वस्तुतः स्वाध्यायतप आत्म-कल्याणकारी और आत्म-स्वरूप को बताने वाले ग्रन्थों का अध्ययन है । साथ ही उस ज्ञान को चिन्तन-मनन द्वारा हृदयंगम करना भी इस तप के अन्तर्गत है । 'स्वयमध्ययनम् स्वाध्यायः' निदिध्या-सन-मनन करना । Jain Education International - - (५) व्युत्सर्ग तप व्युत्सर्ग (वि + उत्सर्ग) का अभिप्राय है विशेष प्रकार से त्यागना । निःसंगता, अनासक्ति और निर्भयता को हृदय में रमाकर जीवन की - देह (शरीर) की लालसा अथवा ममत्व का त्याग, व्युत्सर्ग तप है। इसे सामान्य रूप से कायोत्सर्ग भी कह दिया जाता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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