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________________ ४२२ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९: सूत्र १९-२०-२१ एक शब्द में एक साधक ने इस भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है। आत्मशोधिनी क्रिया तपः । आत्मा की विशुद्धि करने वाली क्रिया तप है । इससे यह भी स्पष्ट होता की कोई भी क्रिया चाहे वह अनशन हो, ऊनोदरी हो, विनय, प्रायश्चित्त, स्वाध्याय, ध्यान आदि कुछ भी हो, यदि वह क्रिया कर्मक्षय तथा आत्म शुद्धि में सहायक नहीं बनती, आत्मा का अभ्युत्थान नहीं करती तो वह तप नहीं हैं। सारांश यह है कि तप का आवश्यक उद्देश्य और लक्षण - कर्मक्षय तथा आत्म-विशुद्धि एवं आत्मोन्नति है । इस तप के प्रमुख रूप से दो भेद है - (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर । बाह्य तप का लक्षण समवायांग ६, अभयदेववृत्ति में इस प्रकार दिया गया है- 'बाह्य शरीररयपरिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति- अर्थात् जिससे बाह्य शरीर का शोषण और कर्मक्षय हो । सरल शब्दों में देह तथा इन्द्रियों के निग्रह और नियन्त्रण के लिए की जाने वाली वे सभी क्रियाएँ जो कर्मक्षय का कारण भी हों, बाह्य तप हैं । बाह्य तप बाहर दिखाई देने वाले तप हैं, इनका प्रभाव शरीर, इन्द्रियों आदि पर पड़ता दिखाई देता है। अतः इसे बाह्य तप कहा है । - आभ्यन्तर तप की परिभाषा समवायांगवृत्ति में इस प्रकार दी गई है। आभ्यन्तरं चित्तनिरोध प्राधान्येय कर्मक्षपणा हेतुत्वादिति चित्तनिरोध की प्रधानता द्वारा कर्मक्षय करनेवाली क्रियाएँ आभ्यन्तर तप अर्थात् आभ्यन्तर तप में चित्तविशुद्धि प्रमुख है। बाह्य तप बाह्य तप के छह भेद हैं १. अनशन तप' अशन (अन्न), पान ( जल आदि पेय पदार्थ), खादिम (मेवा, मिष्टान्न आदि) तथा स्वादिम मुख को सुवासित करने वाले इलयाची, सुपारी आदि - इन चारों प्रकार के पदार्थों का 'अशन' शब्द से ग्रहण किया जाता है और अनशन का अभिप्राय है, इन चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों का त्याग अथवा 'पान' के अतिरिक्त तीन प्रकार के पदार्थों का त्याग । अनशन तप तब कहलाता है जब शरीर के साथ-साथ आत्म-: -शुद्धि का Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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