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संवर तथा निर्जरा ४२१ (आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है- (१) प्रायश्चित (२) विनय, (३) 'वैयावृत्य (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) व्यत्सुर्ग ।) तप के भेदोपभेद -
अनशनावमौदर्यवत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्यासनकाय- क्लेशाः बाह्यं तपः ।१९।। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।२०।
नवचतुदेशपंचद्विभेदं यथाक्रमम् प्राग्ध्यानात् ।२१।
(१) अनशन (२) अवमौदर्य (ऊनोदरी) (३) वृत्तिपरिसंख्यान (४) रस परित्याग (५) विविक्त शय्यासन और (६) काय क्लेश - यह छह बाह्य तप हैं।
(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्त्य (४) स्वाध्याय (६) व्युत्सर्ग और (६) ध्यान - यह छह उत्तर अर्थात् आभ्यन्तर तप हैं।
ध्यान से पहले के (पाँच आभ्यन्तर) तपों के यथाक्रम से नौ, चार, दस, पांच और दो (उत्तर) भेद हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत ३ सूत्रों में से सूत्र १९ मे बाह्य तपों के तथा सूत्र २० में आभ्यन्तर तपों के छह-छहू भेद बताये है तथा सूत्र २१ में आभ्यन्तर छह तपों मे से ५ तपों के उत्तरभेद बताये हैं ।
यथा-प्रायश्चित्त के ९, विनय के ४, वैयावृत्त्य के १०, स्वाध्याय के ५ और व्युत्सर्ग के २ उत्तर अथवा अवान्तर भेद है ।
__ तप - जैन दर्शन में तप बहुत ही व्यापक शब्द है । इसके विभिन्न अपेक्षा और विविक्षाओं से अनेक लक्षण (परिभाषाएँ) दिये गये हैं । उनमें से कुछ को समझ लेना उपयोगी रहेगा, जिससे 'तप' का हार्द हृदयंगम हो जाय। . आवश्यक मलयगिरि (खण्ड २, अ. १) मे कहा गया है
तापयति. अष्टप्रकारं कर्म इति तपः। (जो आठ प्रकार के कर्मों को जलाए - तपाए, वह तप है । .
यही बात सर्वार्थसिद्धिकार ने कर्मक्षयार्थ तय्यते इति तपः तथा राजवार्तिककार ने कर्मदहनात्तपः (यानी कर्मों के क्षय के लिए अथवा उनके दहन के लिए) कहकर कही हैं । ___मोक्ष पंचाशत् (४८) में 'तस्माद्वीर्यसमुद्रेकात् इच्छा निरोधस्तपो विदुः कहकर इच्छाओं के निरोध को तप बताया है ।
इन परिभाषाओं से यह फलित होता है कि जिन क्रियाओं से कर्मों का क्षय हो और आत्मा की विशुद्धि हो, वे सभी तप है ।
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