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४०६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ९ : सूत्र ६ शौच (५) उत्तम सत्य (६) उत्तम संयम (७) उत्तम तप (८) उत्तम त्याग (९) उत्तम आंकिचन्य और (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य - यह दस उत्तम (सर्वोत्तम) धर्म हैं ।
विवेचन - 'धर्म' शब्द बहुत व्यापक है, संपूर्ण जीवन ही इसके आयाम में समा जाता है। अतः इसकी परिभाषाएँ भी अनेक दी गई हैं ।
. वस्तुतः धर्म शब्द धृ-धारणे धातु से व्युत्पन्न हुआ है । इसका अर्थ है जो धारण किया जाता है और जो दुर्गति से बचाता है, वह धर्म है।
यहाँ जो क्षमा आदि दश धर्म बताये हैं, वे भी धर्म के इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हैं ।
इस प्रसंग में धर्म को व्यक्ति में सदा स्थिर रहने वाली वृत्ति-प्रवृत्ति समझा जाना चाहिए, जिसका कार्य है शोधन । शोधन कषायों का, राग-द्वेष का, परिग्रह तथा बाह्य वस्तुओं का यहाँ तक कि शरीर के प्रति अनुरागभाव का भी ।
इस शोधन द्वारा धर्म आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्रगट करने में सक्षम होता है, आत्मा अपने अन्तर में प्रवाहित समतारस का आनन्द पाता है। __सूत्रोक्त दस धर्मों का परिचय इस प्रकार है -
(१) क्षमा - क्रोध का निग्रह । क्रोध के बाह्य कारण उपस्थित होने पर भी तितिक्षा, सहिष्णुता रहे, हृदय शान्त रहे, उद्विग्नता उत्पन्न न हो। तथा क्रोध को विवेक एवं विनय से निष्फल कर देना क्षमा है।
(२) मार्दव - मान का निग्रह; मन में मृदुता तथाविनम्रता होना मार्दव गुण है । रूप, जाति, कुल, ज्ञान, तप आदि किसी भी उपलब्धि पर गर्वित न होना मार्दवभाव की साधना है ।
(३) आर्जव - कुटिलता का निग्रह । मन वचन-काय की सरलता।
(४) शौच - निर्लोभता । आसक्ति और अनुराग का अभाव)। यहाँ तक कि स्वयं के जीवन और आरोग्य के प्रति भी लोभ न रहे । एक शब्द में सभी प्रकार की आसक्ति का त्याग ।
(५) सत्य- हित-मित-प्रिय वचन बोलना । सत्य में भाव, भाषा और काया तीनों की सरलता अपेक्षित होती है।
समवायांग सूत्र में साधु के मूल गुणों में भावसच्चे, करणसच्चे, जोग सच्चे अर्थात् भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य बताये गये हैं ।
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