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________________ ३९६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र २२-२३-२४ (सब कर्मों का अनुभाग उन-उन कर्मों के फल का विपाक है । अर्थात् उनमें फलदान शक्ति का पड़ जाना और उदय में आकर अनुभव होने लगना सो अनुभव, अनुभाव या अनुभाग है । उस अनुभव के बाद उन कर्मों की फल देकर निर्जरा हो जाती है।) अनुभावबन्ध का स्वरूप विपाकोऽनुभावः ।२२। स यथानाम ।२३। ततश्च निर्जरा ।२४। विपाक अर्थात् फलदान शक्ति तथा उसका वेदन अनुभव या अनुभाव ... वह (अनुभाव या अनुभव) उन-उन कर्म प्रकृतियों के नाम अथवा स्वभाव के अनुसार ही होता है। उस अनुभव अथवा अनुभाव के पश्चात् निर्जरा हो जाती है अर्थात् वे बँधे हुए कर्मदलिक आत्मा से पृथक् हो जाते है। विवेचन - 'वि' उपसर्ग का अर्थ 'विविध' अथवा 'अनेक प्रकार का' और पाक का अभिप्राय परिणाम अथवा फल है, पाक से अभिप्राय परिपक्व होने, पकने अथवा उपभोगयोग्य होने का भी है । अतः विपाक का अभिप्राय प्रस्तुत सन्दर्भ के पक जाने, फल देने योग्य हो जाने से है। इस फल का अनुभव होनाही अनुभाव है । अर्थात् जीव जब अपने बाँधे हुए विविध प्रकार के कर्मों का फल अनेक प्रकार से सुखरूप या दुःखरूप अनुभव करता है, भोगता है; कर्म की अपेक्षा से वह अनुभाव कहा जाता है। अनुभाव यानी अनुभव कराने की शक्ति । वह अनुभाव कर्मों के नाम अथवा स्वभाव के अनुसार होता है। जैसे -ज्ञानावरणीय के उदय से जीव में बुद्धिहीनता आती है, वह विविध विषयों को जान नहीं पाता, स्मृति नहीं रहती आदि-आदि। ___ इसी प्रकार साता-असता वेदनीय के उदय से जीव को सुख-दुःख की अनुभूति होती है और अन्तराय के उदय से लाभ आदि में विघ्न पड़ता शेष सभी कर्मों का फल उनके नाम और स्वभाव अनुसार समझ लेना चाहिए । इस प्रकार फल-भोग कराने के बाद कर्मों की निर्जरा हो जाती है, वे झड़ जाते हैं, आत्मा से अलग हो जाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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