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________________ बन्ध तत्त्व ३९५ से भी अभिव्यक्त किया जा सकता है । साथ ही, यह भी निश्चित है कि स्थिति पूर्ण होते ही कर्म स्वयं ही निर्जीर्ण होकर आत्मा से पृथक हो जायेगा, झड़ जायेगा । विशेष- प्रस्तुत सूत्रों में सांपरायिक अर्थात् सकषाय स्थिति का निर्देश किया गया है । किन्तु ईर्यापथिक क्रिया से अर्थात् कषाय के अभाव में जो सातावेदनीय का बंध होता है, उसे गौण कर दिया गया है। ईर्यापथिक क्रिया की अपेक्षा साता वेदनीय की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति मात्र दो समय है । पहले समय में सातावेदनीय का बंध होता है और दूसरे समय में उसकी निर्जरा हो जाती है । यह स्थिति केवल तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान में ही होती है, अन्यत्र कहीं भी यह संभव नहीं है । आठ कर्मों की स्थिति क्रम कर्म का नाम उत्कृष्ट स्थिति न्यूनतम स्थिति ज्ञानावरण ३० कोटि-कोटी सागर अन्तर्मुहूर्त दर्शनावरण वेदनीय १२ मुहूर्त मोहनीय अन्तर्मुहूर्त आयु ३३ सागर " नाम २० कोटाकोटी सागर ८ मुहूर्त ७० " ॥ 6m & cm गोत्र ८ अन्तराय ३० " अन्तर्मुहूर्त आगम वचनअणुभागफलविवागा. __ - समवायांग, विपाकश्रुत वर्णन सव्वेसिं च कम्माणं - प्रज्ञापना पद २३, उ. २ उत्तरा २३/१७ उदीरिया वेइया य निजिन्ना - भगवती श. १, उ. १, सूत्र ११ नोट : १. मुहूर्त ४८ मिनट का होता है और अन्तमूहूर्त में ४८ मिनट से कुछ कम समय (क्षण) होते है । २. ईर्यापथ आस्रव की दृष्टि से वेदनीय कर्म की न्यूनतम स्थिति सिर्फ २ समय (सैकिण्ड का अनन्तवाँ भाग) होती है। प्रथम समय में बंध और द्वितीय समय में निर्जरा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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