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________________ १८ तत्त्वार्थ सूत्र श्रद्धावान बनकर सम्यक्यचारित्र का पालन करता ही है, साथ ही अन्यों को भी प्रेरणा देकर उन्हें भी सदाचरण में प्रवृत्त करता है । रोचक सम्यक्त्व - इसे प्राप्त जीवा स्वयं भी सिर्फ श्रद्धान ही कर पाता है, किन्तु तदनुकूल आचरण-सम्यक् चारित्र का पालन नहीं कर पाता। यह सिर्फ सम्यग्बोध की दशा है । दीपक सम्यक्त्व - का धारक जीव दीपक के समान होता है । जैसे दीपक के नीचे अंधेरा रहता है, उसी प्रकार इसे भी तत्वों के प्रति श्रद्धा नहीं होती; किन्तु इसे तत्वज्ञान बहुत होता है । यह तत्वों का विवेचन करके अन्य लोगों को तो सम्यक्त्वी बना देता है, वे लोग इससे लाभ उठा लेते हैं किन्तु यह स्वयं कोरा ही रह जाता हैं । उसका सम्यक्त्व केवल वाणीविलास तक ही सीमित रहता है । __ क्षायिक सम्यक्त्व - दर्शनसप्तक के क्षय होने से आत्मा में प्रस्फुटित होता है । इसकी विशेषता यह है कि एक बार प्राप्त होने के बाद यह नष्ट नहीं होता और तचं भवं नाइक्कमइ- इस मान्यता के अनुसार ऐसा जीव अधिक से अधिक ३ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - दर्शनसप्तक से छह प्रकृतियों के क्षय तथा सातवीं सम्यमिथ्यात्व नाम की प्रकृति का उपशम होने पर उपलब्ध होता है । इस सम्यक्त्व का काल ६६ सागरोपम का है । ऐसा जीव १५-१६ भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है । एक. अपेक्षा से इसका उत्कृष्ट काल १३२ सागरोपम का भी माना गया है, किन्तु भव संख्या उतनी ही है । औपशमिक सम्यक्त्व - दर्शनसप्तक के उपशम होने से उपलब्ध होता है । उपशम का अर्थ है - दब जाना । जैसे एक गिलास में मिट्टी मिला जल भरा है । निर्मली (फिटकड़ी) आदि डालने से मिट्टी नीचे जम जाती है और जल निर्मल दिखाई देने लगता है, वही दशा औपशमिक सम्यक्त्व की है । किन्तु जैसे ही गिलास को धक्का लगा कि पुनः पानी गंदला हो जाता है, इसी प्रकार मिथ्यात्व अथवा अनन्तानुबन्धी कषाय का आवेश आते ही यह सम्यक्त्व भी विनष्ट हो जाता है । किन्तु इसकी इतनी विशेषता अवश्य है कि एक बार इसका स्पर्श करनेवाले जीव का संसार मात्र अर्द्ध पुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है । इस सम्यक्त्व का काल मात्र एक मुहूर्त है । इसके उपरान्त या तो जीव को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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