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________________ बन्ध तत्त्व ३७९ वज्रऋभनाराचसंहनननामकर्म के उदय से ऐसा सुदृढ़ अस्थि बंधन जीव के शरीर का होता है । (ब) ऋषभनाराचसंहनननामकर्म इस धर्म के उदय से हुए अस्थिबंधन में हड्डियों की आँटी और वेष्टन पट्टा तो होते हैं, कील नहीं होती । इसकी सुदृढ़ता वज्रऋषभनाराच संहनन की अपेक्षा कर्म है । (स) नाराचसंहनननामकर्म इस कर्म के उदय से प्राप्त अस्थिबंधन में सिर्फ हड्डियों की आँटी ही होती है, वेष्टन आदि नहीं होते । (द) अर्धनाराचसंहनननामकर्म - इस कर्म के उदय से हु अस्थिबंधन में हड्डियों का एक छोर मर्कटबंध से जुड़ा होता है और दूसरा छोर कील से भिदा होता है। (य) कीलिकासंहनननामकर्म है, जिसमें हड्डियाँ परस्रप कील से जुड़ी होती है । (र) सेवार्तसंहनननामकर्म के उदय से अस्थिबंधन में हड्डियाँ पर्यन्त भाग में परस्पर एक-दूसरी में अड़ी सी रहती है । के उदय से ऐसा अस्थिबंधन होता - अतः इनके सुचारू संचालन, हलन चलन ( movement) के लिए सदा चिकने पदार्थों, तेल-मालिश आदि की आवश्यकता रहती है । आधुनिक युग में मानव और पशुओं में सेवार्त संहनन ही मिलता हैं। डाक्टर लोग तथा (anatomist) जानते है कि अस्थि शीघ्र ही टूटने वाली भंजनशील तथा अन्दर से पोली (Hollow) होती है जिसमें गाढ़ा बसा जैसा द्रव्य भरा रहता है । यदि किसी कारणवश वह चिकना गाढ़ा पदार्थ सूख जाय तो हड्डियाँ परस्पर खड़खड़ाने लगती हैं, मुड़ नहीं पाहतीं, काम नहीं करतीं, जोड़ों में चुभन ( acne) हो जाता है । ( २८-३३) (७) संस्थाननामकर्म इसका प्रभान शरीर की रचना तथा आकृति पर पड़ता है । शरीर जो लम्बा-छोटा आदि होता है, वह इसी कर्म के कारण है । इसके छह भेद है ! , - Jain Education International (अ) समचुतरस्रसंस्थाननामकर्म इस कर्म के प्रभाव से शरीर सुन्दर आकार वाला होता है । सम का अर्थ समान, चतुर का अर्थ चार और अस्र कोण को कहते हैं । पालथी मारकर बैठने पर जिस मनुष्य के शरीर के चारों कोणों (एक घुटने से दूरसे घुटने तक, बाएँ घुटने से दाएँ स्कन्ध तक, दाएँ घुटने से बाएँ स्कन्ध तक और आसन से कपाल तक यह चार कोण हैं) की दूरी या अन्तर समान हो; ( वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है और - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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