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________________ Jain Education International कर्म की मूल प्रकृतियाँ स्वभाव घाती अघाती पुण्य | पाप नाम . लक्षण उत्तर प्रकृतियां पाप ४ | १ | ज्ञानावरणकर्म | ज्ञान गुण का आच्छादान | आँखों पर पट्टी बंधने जैसा घाती | २ | दर्शनावरणकर्म दर्शन गुण का आच्छादान बिच मं परदा हो, ऐसा घाती | पाप ३ | वेदनीयकर्म | सांसारिक सुख-दुख की | शहद लपेटी छुरी जैसा | - अघाती पुर्ण पुण्य भी पाप भी (साता वेदनीय | (असाता की अनुभूति की अपेक्षा) | अपेक्षा) । ४ | मोहनीय सम्यक्त्व और चारित्र | मदिरा जैसा घाती| - | पाप For Personal & Private Use Only का घात ५ | आयु भवधारण ६ | नाम ४२ या ९३ (अन्तरभेद सहित) बन्दीगृह के समान | चितेरा (चित्रकार) जैसा | कुम्भकार जैसा | कोषाध्यक्ष जैसा पुण्य भी (शुभ | पाप (अशुभ | अघात की अपेक्षा) की अपेक्षा) अघाती पुण्य भी (शुभ | पाप (अशुभ अधाता की अपेक्षा) | की अपेक्षा). अपाती पुण्य भी (शुभ | पाप (अशुभाँ अचात की अपेक्षा) की अपेक्षा) | घाती| - मनुष्य आदि नाम पूज्यता-अपूज्यता वीर्यशक्ति का घात ७ | गोत्र बन्ध तत्त्व अन्तराय www.jainelibrary.org विशेष : मोहनीय कर्म की सम्यक्त्वमोहनीय, हास्य, रति, पुरूषवेद यह चार प्रकृतियां पुण्य में परिगणित की गई हैं इनके अतिरिक्त शेष सभी २४ प्रकृतियां पाप-प्रकृतियां हैं । ३६५
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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