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३६४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ७
शक्तियों का घात करते हैं और आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय यह अघाती कर्म हैं, क्योंकि ये आत्मा की निज शक्तियों का घात नहीं करते, इनका प्रभाव शरीर आदि पर ही प्रमुख रूप से पड़ता है, ये जीव को उसी जन्म में टिकाए रखते हैं ।
पुण्य-पाप की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि चारों कर्म पाप हैं; इनकी सिर्फ सम्यक्त्वमोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद' ये चार उत्तर प्रकृतियाँ पुण्य मानी गई हैं । अघाती कर्मों में सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ है और अशुभ आयु, अशुभनाम, अशुभ गोत्र तथा असातावेदनीय ये पाप प्रकृतियाँ है ।
उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा ४२ प्रकृतियों की गणना पुण्य में और ८२ प्रकृतियों की गणना पाप प्रकृतियों में की जाती है ।
यह आठों मूल प्रकृतियों के स्वभाव, लक्षण आदि का विवेचन है । (तालिका पृष्ठ ३६५ पर देखें) ।
आगम वचन
पंचविहे णाणावरणिज्जे कम्मे पण्णत्ते तं ज हा- आभिणिबोहिय णाणावरणिजे जाव केवल णाणावरणिज्जे
स्थानांग, स्थान ५, उ. ३, सूत्र ४६४ (ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकार है (१) आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरण, (२) श्रुतज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण, (४) मनःपर्यव ज्ञानावरण, (५) केवलज्ञानावरण
ज्ञानावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियां
मत्यादीनाम् ।७।
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(१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण (४) मनःपर्यायज्ञानावरण और (५) केवलज्ञानावरण - यह पाँच ज्ञानावरण कर्म के उत्तरभेद है । विवेचन में पाँचों उत्तरप्रकृतियों के स्पष्ट नामों का उल्लेख न सूत्र करके ‘मत्यादीनाम्' शब्द से सूचन मात्र कर दिया है । किन्तु आगम में स्पष्ट शब्दों में नामोल्लेख है ।
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इन पाँचों उत्तरप्रकृतियों के लक्षण इस प्रकार है
मतिज्ञान को आवरित करने वाला मतिज्ञानावरण है । इसी प्रकार
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यह प्रकृतियाँ सिर्फ तत्त्वार्थ सूत्र में ही
हास्य, रति और पुरुषवेद पुण्य प्रकृतियाँ मानी गई हैं, अन्य सभी ग्रंथों में यह पाप प्रकृतियाँ है ।
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