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________________ बन्ध तत्त्व ३५९ संक्रमण में निम्न बाते ध्यान रखने योग्य हैं । (क) यह सिर्फ सजातीय कर्म-प्रकृतियों में ही हो सकता है; जैसे दर्शनावरणीय कर्म की निद्रा प्रकृति का संक्रमण निद्रा-निद्रा प्रकृति में अथवा निद्रा-निद्रा का निद्रा प्रकृति में हो सकता है, अचक्षुदर्शनावरणीय अथवा अवधि या केवल दर्शनावरणीय में नहीं हो सकता । (ख) यह केवल किसी कर्म की उत्तरप्रकृतियों में संभव है, मूल प्रकृतियों में नहीं । (म) आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता । (घ) दर्शनमोहनीय का संक्रमण चारित्रमोहनीय में अथवा चारित्रमोहनीय का दर्शनमोहनीय में नहीं होता । (ङ) उदय (उदयावलिका) में आई हई कर्म-प्रकतियों में संक्रमण नहीं होता; जो प्रकृतियां उदय में नहीं आई हैं, उन्हीं में संक्रमण संभव है। ८. उपशमन - इसका अर्थ है उपशांत अथवा शांत करना । जैसे निर्मली (फिटकरी) आदि डालने से पानी की गंदगी तली में नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ-साफ दिखाई देने लगता है, इसी प्रकार कर्म का सर्वथा उदय न होने की दशा को उपशमन कहा जाता है । . उपशमन में उदय और उदीरणा नहीं होती; किन्तु उद्वर्तना, अपवर्तना आदि हो सकते हैं । उपशमन का काल पूरा होने पर कर्म पुनः उदय में आकर अपना काम करने लगता है, अर्थात् फल देने लगता है । ९. निधत्ति - निधत्ति, कर्म की ऐसी दशा है जिसमें उदीरणा और संक्रमण नहीं हो सकते; किन्तु उद्वर्तना और अपवर्तना संभव है । १०. निकाचना- जिस रूप में कर्मों का बन्ध हुआ है, उनका फल उसी रूप में अनिवार्यरूप से भोगना । इसे नियति भी कह सकते हैं । इसमें आत्मा का कोई दुरस्वार्थ काम नहीं करत क्योंकि इसमें उद्दर, जयदर्तन, संक्रमण, उदीरणा आदि नहीं होती । यानी इसमें कोई फेर-फार नहीं होता। ११. अबाध - जब तक कर्म सत्ता में ही रहे, उसका उदय प्रारम्भ न हो, वह किसी प्रकार का फल न दे, उस दशा को अबाध कहा जाता है, तथा कर्मबन्ध से उदय में आने तक के - बीच के समय को अबाधा काल। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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