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३५८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८: सूत्र ४
४. उदीरणा कर्मों की निश्चित अवधि से पहले ही, उनकी स्थिति को घात करके, उन्हें भोगकर निर्जरित कर देना - आत्मा से पृथक करे देना उदीरणा कहलाती है । जिस प्रकार कारबेट, पाल आदि में रखकर आम आदि फल समय से पहले ही पका लिये जाते हैं; इसी प्रकार अपना विशेष प्रयत्न करके कर्मों को भी निश्चित अवधि से पहले भोग लेना उदीरणा है ।
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उदीरणा के विषय में तीन बातें ध्यान रखने योग्य है
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(क) सामान्य रूप से जिस कर्म का उदय चल रहा है, उसी कर्म के सजातीय कर्म की ही उदीरणा की जा सकती है ।
(ख) उदयावलिका (एक आवलिका' समय की सीमा में उदय आने वाले) में आये हुए कर्म - दलिकों की उदीरणा नहीं हो सकती ।
(ग) उदीरणा केवल अल्पकषाय द्वारा बंधे हुए कर्मों की ही हो सकती है; तीव्र कषाय द्वारा बंधे कर्मों की नहीं होती ।
५. उद्वर्तना कर्मों की स्थिति और अनुभाव बढ़ा लेना; हुए उदाहरण के लिए, चोरी करके झूठ बोलना पापकर्म की स्थिति - अनुभाव बढ़ा देता है ।
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इसी तरह शुभकर्मो की स्थिति भी बढ़ाई जा सकती है । जैसे किसी रोगी को मधुर शब्दों से सांत्वना देकर उसकी सेवा भी करना ।
६. अपवर्तना यह उद्वर्तना की विपरीत स्थिति है । इसका अभिप्राय है - बंधे हुएकर्मों की स्थिति - अनुभाव कम कर लेना; जैसे- कोई गलत काम करके उसका प्रायश्चित्त करना, पापकर्म की स्थिति - अनुभाव को कम कर देता है और दान देकर अभिमान करने से शुभ कर्म की स्थितिअनुभाव में कमी आ जाती है, उसका फल कम मिलता है ।
७. संक्रमण विशेष प्रयत्न करके एक कर्म - प्रकृति को दूसरी कर्मप्रकृति में परिवर्तित करे लेना ।
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यद्यपि शास्त्रों में आवलिका को असंख्यात समय का बताया गया है) स्पष्ट काल प्रमाण नहीं गया किन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा आवलिका में कितना समय (time) होता है, इसका एक अनुमान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया हैलगभग १.८७५५७९९७४१०९ इकाई समय (time unit) मिलकर एक सेकण्ड का निर्माण करते हैं । ऐसे लगभग ३००००० इकाई समय तक एक आवलिका बनाते हैं । (तीर्थंकर, जनवरी ८६ )
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इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आवलिका (time) काल का कितना सूक्ष्म अंश है ।
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