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३५४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ८ : सूत्र ३
जिस क्रम से यह बंधहेतु लिखे गये हैं, उसी क्रम से छूटते हैं ।ऐसा नहीं है कि कषाय अथवाप्रमाद बंधहेतु तो छूट जाय; किन्तु मिथ्यात्व अथवा अविरति बंधहेतु बना रहे, कम बंधन कराता रहे ।
अतः इनका क्रम ध्यान में रखना आवश्यक है । आगम वचन - जोगबंधे कसायबंधे
.' - समावायांग, समवाय ५ दोहिं ठाणेहि पावकम्मा बंधंति, तं जहा-रागेण य दोसेण य रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-माया य लोभे य दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-कोहे य माणे य
- स्थानांग, स्थान २, उ. २; प्रज्ञापना पद २३, सूत्र ५ (बन्ध योग से होता है और कषाय से होता है । दो स्थानों (कारणों) से पाप कर्म बँधते हैं - राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का कहा गया है – 'माया (कपट) और लोभ ।
द्वेष दो प्रकार का कहा गया है - क्रोध और मान ।). बन्ध का लक्षण -
सकषायात्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ।२। स बन्धः ।३।
कषाय सहित होने से जीव कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। वह बन्ध है ।
विवेचन - समस्त लोक में पुद्गल वर्गाणाएँ भरी है । इनके कई प्रकार हैं। उनमें से कर्म-योग्य पुदगल वर्गणओं का आत्मा के साथ कर्म-बन्ध के रूप में संबंध होता है । यह बंध कषाय सहित जीव को होता है ।।
कषाय से अनुरंजित आत्मा के परिणाम जब प्रकम्पित/स्पन्दित होते हैं तो उनमें एक ऐसी विशेष प्रकार की आकर्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो कर्म-वर्गणाओं को आकर्षित कर लेती है और वे वर्गणाएँ आत्मा के साथ चिपक जाती है, यही जीव के साथ कर्म-वर्गणा का मिलन/कर्मबंध है ।
इसको उदाहरण द्वारा यों समझ सकते हैं - जैसे कोई चिकना वस्त्र बाहर पड़ा हो तो वह वायुमंडल में फैले सूक्ष्म रजकणों को आकर्षित कर लेता है। यही स्थिति कषाययुक्त आत्मा की है ।
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