SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३४ दान के चार अंग है- १. दाता स्वयं, २. द्रव्य-दी जाने वाली वस्तु, ३. दिये जाने की विधि या तरीका और ४. पात्र-लेने वाला व्यक्ति । इन चारों के आधार पर ही दान का विशेष-विशेष फल होता है । विशेष का अर्थ यहाँ तरतमभाव अथवा न्यूनाधिकता है । (१) विधि - दान देने का तरीका (way, method, how) विधि है। देश, काल, श्रद्धा, सत्कार आदि विधि में गर्भित है । उदाहरण के लिए अन्नदान को लें, वह शुद्धतापूर्वक बनाया गया हो, अपने स्वयं के लिए ही निर्मित हो, उसमें से आदरपूर्वक दिया जाय, यह दान देने की विधि है । (२) द्रव्य - देय वस्तु (what)- जो वस्तु दी जाये, वह लेने वाले के गुणों को बढ़ाने वाली हो, साथ ही जीवन यात्रा मे सहकारी/उपयोगी बने। (३) दातृ - दाता, यह दान का सबसे महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि देने वाला भी वही है और दान का फल भोगने वाला भी वही है । दाता के लिए आवश्यक है कि उसके मन-वचन-काय शुद्ध हों। दान देते समय, और उसके पहले तथा पीछे भी, उसके मन मे कंजूसी, ईर्ष्या आदि दुर्भाव न आयें । मधुर वचनों से पात्र का सत्कार करे । काया से उठकर विनय करे, भक्ति और बहुमानपूर्वक विनम्र भाव से दे । मन में यही सोचे कि आज मेरा भाग्य उदय हआ है कि मैं कुछ देकर स्वयं को धन्य बना सका, इस पात्र ने दान लेकर मुझे सौभाग्य प्रदान किया । ऐसे चढ़ते भावों से दिये गये दान का फल उत्कृष्ट होता है । (४) पात्र - यह तीन प्रकार के होते हैं, महाव्रती, अणुव्रती और श्रावक (अविरत सम्यक्त्वी ) । महाव्रती को देने का फल उत्तम (बहुत अच्छा) अणुव्रती को देने का फल मध्यम और सम्यक्त्वी श्रावक को दान सहयोग की भावना से दिया जाता है । सामान्य पात्रों की अपेक्षा पात्र (सुपात्र) को दान देने का फल बहुत अधिक होता है । विधि आदि चार बातों की अपेक्षा से ही दान के फलं में विशेषता आती है अर्थात् यह चारों उत्तम हैं तो फल भी उत्तम होगा और इनकी उत्तमता में जितनी कमी आती जायेगी, फल में भी उतनी ही कमी स्वयमेव होती चली जायेगी । विधि, आदि का विचार-विवेक श्रद्धादान में किया जाता है, अनुकंपादान के लिए ऐसा विवेक अनिवार्य नहीं है । जीव मात्र-अनुकम्पा का पात्र है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy