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________________ आचार-(विरति-संवर) ३४७ ९. करिष्यतिदान - 'आज मैं इसको दे दूं तो भविष्य मे यह भी मेरा उपकार करेगा,' इस प्रति आशा से दिया जाने वाला दान । १०. कृतदान - किसी के पहले किये हुए सहयोग-उपकार का बदला चुकाने के लिए जो कुछ दिया जाता है, वह कृतदान है । इसी प्रकार अन्य अपेक्षाओं से भी दान के भेदों का वर्गीकरण किया गया है । किन्तु प्रमुख भेद हैं (१) सुदान और (२) कुदान । सुदान का अभिप्राय है, देते समय भी दाता की भावना शुभ हो और उसका फल भी आत्म-कल्याणकारी हो । कुदान - यह ऐसा दान है कि इसका फल आत्म-कल्याणकारी नहीं होता, इसके फलस्वरूप इन्द्रिय और मन को सुख देने वाले साधन तो उपलब्ध होते हैं, किंतु वे आत्मा को पतन की ओर अभिमुख करने वाले ही बनते हैं। ___ मूल बात यह है कि दान में अहंकार और यश आदि की भावना न होनी चाहिए और वह अपने न्याय द्वारा उपार्जित साधनों में से उचित संविभाग करके दिया जाय । आगम वचन - दव्वसुद्धणं दायगसुद्धेणं तवस्सिविसुद्धणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहसुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं । - भगवती श. १५, सू. ५४१ (द्रव्य शुद्ध से, दातृ शुद्ध से, तपस्वी शुद्ध से, त्रिकरण शुद्ध से, पात्र शुद्ध से दान की विशेषता होती है. ।) दान की विशेषता विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ।३४ । १. विधि, २. द्रव्य, ३. दाता और ४. पात्र की विशेषता की अपेक्षा दान की विशेषता होती है । विवेचन - प्रत्येक क्रिया फलवती होती है, उसका फल अवश्य मिलता है । वह फल दो प्रकार का होता है -सामान्य और विशेष यदि क्रिया सामान्य कोटि की हुई तो उसका फल भी सामान्य होगा और विशेष प्रकार की क्रिया विशेष फलदायी बनेगी । दान के विषय में भी यही सत्य है । इसके भी सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के फल प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही सूचन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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