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________________ आचार-(विरति-संवर) ३४५ (आगमानुसार) १ इहलोकाशंसा प्रयोग २ परलोकाशंसा प्रयोग ३ जीविताशंसा प्रयोग ४ मरणाशंसा प्रयोग ५ कामभोगाशंसा प्रयोग आगम वचन समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उत्पाएति, समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ । - भगवती श. ७, उ. १, सूत्र २६३ ( श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन (श्रावक) को यावत् आहार आदि देता हुआ तथारूप श्रमण अथवा माहन को समाधि उत्पन्न करता है । समाधि देने के कारण उसको भी समाधि प्राप्त होती है । दान का लक्षण - अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गोदानम् ।३३। अनुग्रह के हेतु अपनी किसी भी वस्तु का त्याग करना, दान कहलाता विवेचन - सूत्र में दान का लक्षण दिया गया है । यहाँ 'अनग्रह' शब्द का अर्थ उपकार और कल्याण दोनों ही हैं । अर्थात् अपने और दूसरे के उपकार अथवा कल्याण के लिए अपने स्वामित्व की वस्तु का अतिसर्गत्याग कर देना, दान है । दान की अनेक परिभाषाओं में एक है - दानं संविभाग : यानी दान सम्यक् प्रकार से किया हुआ विभाग है । विद्वानों का अभिमत है कि गृहस्थ श्रावक जो कुछ भी धन आदि सम्पत्ति अर्जित करता है, स्वयं के आवश्यक उपभोग के साथ-साथ उसका उचित विभाजन करके कुछ अंश उपकारी और कल्याण के कार्यों में भी उपयोग करना चाहिए । ___अनुग्रह शब्द के उपकार और कल्याण अर्थ में अपेक्षाभेद से दो आशय फलित होते हैं (१) उपकार - यह संसार के सभी प्राणियों के प्रति किया जाता है। इसमें स्वोपकार और परोपकार दोनों ही गर्भित है । (२) कल्याण से अभिप्राय आत्म-कल्याण लिया जाए तो श्रावक अणु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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