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________________ ३४४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र ३२ संलेखना व्रत के अतिचार जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानकरणानि ॥३२॥ (१) जीविताशंसा (२) मरणाशंसा (३) मित्रानुराग (४) सुखानुबंध और (५) निदान करना - यह पाँच अतिचार संलेखना के हैं । विवेचन - संलेखना सदा ही जीवन के अन्तिम समय में की जाती है । उस समय साधक का कर्तव्य है कि सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग कर दे । इच्छाओं का शेष रह जाना ही अतिचार है । इन अतिचारों का स्वरूप निम्न है - (१) संलेखना ग्रहण करके जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसा (२) रोगादि उपद्रवों से घबराकर मरने की इच्छा मरणाशंसा है । (३) मित्रों का स्मरण करना मित्रानुराग है । (४) पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण सुखानुबंध है । (५) आगामी जीवन में सुख (इन्द्रिय-विषय आदि) भोगने की इच्छा रखना निदानकरण यानी निदान करना है। विशेष - सूत्र १८ से सूत्र ३२ तक अतिचारों का वर्णन किया गया है । यदि भूल से, प्रमाद से, अनजाने में कभी इन अतिचारों का सेवन अथवा आचरण हो जाय तब तक तो यह अतिचार की कोटि में रहते हैं, इनके आचरण से व्रत मलिन ही होता है और यदि इनका आचरण जान-बूझकर किया जाय तो ग्रहण किया हुआ व्रत खंडित हो जाता है । अणुव्रतों के अतिचारों की तालिका पृष्ठ ३४२-४३ पर दी गई है । __सम्यक्त्व और संलेखना के अतिचार सम्यक्त्व १ शंका २ कांक्षा ३ विचिकित्सा ४ अन्यदृष्टिप्रशंसा ५ अन्यदृष्टिसंस्तव संलेखना (तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार) १ जीविताशंसा २ मरणाशंसा ३ मित्रानुराग ४ सुखानुबंध ५ निदानकरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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