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________________ ३३४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ७ : सूत्र २३ में भी वजन है । यह तो स्पष्ट ही है कि ब्रह्मचर्य अणुव्रत की साधना करने वाला श्रावक विशिष्ट विरति वाला होता है । वह रति-क्रीड़ा के सुख में आसक्ति नहीं रखता, पुरुषवेदजनित भावना की शांति के लिए ही और वह भी सिर्फ मर्यादित रूप में ही विषय - सेवन करता है । फिर भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक आनन्द गाथापति ने जिस प्रकार • अब्रह्मसेवन का प्रत्याख्यान किया इससे भी इस धारणा को बल मिलता है। कि श्रावक अपना स्वयं का भी दूसरा (पर) विवाह न करे ।. आनन्द के शब्द हैं - एक्काए सिवनंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खा | (एक शिवानन्दा भार्या के अतिरिक्त अवशिष्ट सर्व प्रकार के मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ।) उपरोक्त संपूर्ण विवेचन के प्रकाश में ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांचों अंतिचारों का स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है. - (१) परविवाहकरण ( एक पत्नी के रहते हुए भोगेच्छा से) श्रावक स्वयं अपना भी (पर) दूसरा विवाह न करे और अपने पुत्र-पुत्रियों (क्योंकि उनका विवाह करना श्रावक का पारिवारिक दायित्व है) के अतिरिक्त किसी अन्य का विवाह न करे और न ही कराये । ( २ ) इत्वर परिगृहीतागमन अपनी ही विवाहित किन्तु अल्पवय वाली अथवा भोग के योग्य न होने पर स्त्री के साथ काम सेवन न करे । (३) अपरिगृहीतागमन - जिस कन्या की अपने साथ सगाई हो चुकी हो किन्तु विवाह न हुआ हो, उसके साथ भी उसे अपनी भावी पत्नी मानकर रतिक्रिया न करे । (४) अनंगक्रीड़ा काम सेवन के योग्य जो अंग नहीं है उनसे काम सेवन करने की चेष्टा न करे । - Jain Education International - - (५) तीव्रकामअभिनिवेश काम क्रीड़ा में आसक्ति न रखे, अपनी विवाहित स्त्री में भी अधिक लुब्ध न रहे । पुरुष वेद की शांति के लिए ही मर्यादित रूप के सिवाय काम सेवन से बचे, कामोत्तेजक औषधियों का प्रयोग न करे । आमग वचन इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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