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________________ आचार-(विरति-संवर) ३३३ इस स्थिति में यद्यपि उनके उन स्त्रियों से कोई काम-सम्बन्ध नहीं है फिर भी घर जाने-आने के कारण उसके ब्रह्मचर्याणुव्रत में अतिचार लगता इस विषय में जैसा कि हम सूत्र १८ के विवेचन में कह आये है कि परस्त्री (वेश्या, विधवा, कुमारी कोई भी क्यों न हो) सिर्फ घर जाने तक ही अतिचार है, यदि भोग-संबंध हो गया तो सर्वथा व्रत खण्डित हो जाता है। यह मत जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, भाग १, पृष्ठ २९९ पर दिया गया आचार्यश्री आत्मरामजी म. (आगमोक्त उद्धरण में) तथा पूज्यश्री अमोलक-ऋषि जी म. (परमात्ममार्गदर्शक, पृष्ठ १९४ में) अपरिगृहीता का अर्थ अपनी ही मंगनी (वाग्दान-सगाई) की हई तथा इत्वर परिगृहीता का अर्थ 'अपनी विवाहिता किन्तु अल्पवय वाली-भोग के अयोग्य स्त्री' करके इन सभी शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान कर दिया है । एक जिज्ञासा चिन्तनशील जिज्ञासु उठाते हैं, 'परिविवाहकरण' अतिचार के विषय में कि 'दूसरे का विवाह करना' तो अतिचार है, अतः नही करना चाहिए । तब श्रावक को अपने ही विवाह की छूट हो जायेगी, वह चाहे जितने विवाह करे, उसके स्वीकृत व्रत में कोई अतिचार ही नहीं लगेगा । ऐसी स्थिति में तो व्रत का मूल प्रयोजन ही खण्डित हो जायेगा; क्योंकि ब्रह्मचर्याणुव्रत का मूल प्रयोजन उद्दाम काम को नियंत्रित करना है न कि कई स्त्रियों से विवाह करके निराबाध काम सेवन करना । - अतः ऐसे जिज्ञासु यह मत व्यक्त करते हैं कि, पर-विवाह ' का षष्टी तत्पुरुष समास के अनुसार 'परस्य विवाह' - दूसरे का विवाह न करके अव्वयीभाव समास लगाकर 'पर' अर्थात् दूसरा विवाह ऐसा करना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि काम वासना से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक अपना भी दूसरा विवाह न करे ।। यह वर्तमान समय के संदर्भ में है तथा आज के भारतीय विधान के अनुरूप है । प्राचीन समय में बहु विवाह प्रथा थी । अतः स्वदारसंतोष में ही पत्नी हो ऐसा अर्थ नहीं बैठता । वस्तुतः चिन्तन करने से अनुभव होता है कि इस जिज्ञासा और तर्क Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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