SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-(विरति-संवर) ३०७ पाप विरति की अन्य भावनायें - हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् । ४। दुःखमेव वा ।५। हिंसा आदि (पाँचो पापों) के होने से इस लोक में कष्ट और परलोक में अनिष्ट का चिन्तन करना ।४। अथवा (यह हिंसा आदि पाँच पाप) दुःख रूप ही हैं, ऐसी भावना करना ।५। विवेचन - प्रस्तुत दोनों सूत्रों में हिसां आदि पापों से विरति के लिए किस प्रकार का चिन्तन करना चाहिए, इस बात का निर्देश दिया गया है । सूत्र ४ में हिंसा आदि के प्रत्यक्ष कष्टकारी फल तथा परलोक सम्बन्धी अनिष्ट फल के चिन्तन की प्रेरणा है और सूत्र संख्या ५ में समग्र रूप से एक ही बात कह दी गई है कि हिंसा आदि दुखःरूप ही हैं, अर्थात् पाप करते समय तो आत्मा का उद्वेग तथा संक्लेशरुप परिणाम होते हैं और उसका फल भोगते समय तो अत्यन्त दुःख एवं पीड़ा का अनुभव होता है। हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म (व्यभिचार, पर-दार-वेश्यागमन आदिः के इस लोकसम्बन्धी कटु फल तो प्रत्यक्ष हैं ही । परिग्रह (धन, जमीन) आदि भी प्रत्यक्ष ही वैर-विरोध व चिन्ता का कारण हैं, इसके लिए प्राण भी चले जाते हैं, पुत्र भाई आदि भी शत्रु बन जाते हैं और परलोक में भी दुर्गति प्राप्त होती है । यह तथ्य भी सुविदित है । आगम वचन - मित्तिं भूएहिं कप्पए ... - सूत्रकृतांग श्रु. २, अ. १५, गाथा ३ सुप्पडियाणंदा - औपपातिक सूत्र १. प्र. २० साणु क्कोस्सयाए .. - औपपातिक, भगवदुपदेश मज्झत्थो निजरापेही समाहिमणुपालए । - आचारांग श्रु. १, अ. ८, उ. ८, गा. ५ भावाणाहिं य सुद्धाहि, सम्मं भावेतु अप्पयं - उत्तरा १९/९४ अणिच्चे जीवलोगम्मि । - उत्तरा. १८/११ जीवियं चेव रूपं च, विजुसंपायचंचलम् । - उत्तरा. १८/१३ (समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy