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________________ अध्याय १ : मोक्षमार्ग ९ इनमें से प्रत्येक धारा आत्मा के किसी न किसी गुण को आच्छादित करती हैं । जैसे-कषायधारा आत्मा को अपने निजी सुख स्वभाव या समता भाव की अनुभूति नहीं होने देती, स्थिरता को प्रभावित करती हैं ( मिथ्यात्व धारा सुख की हानि तो करती ही है) आत्मा की अपने स्वरूप की ओर रुचि भी नहीं होने देती, सत्य-प्रतीति में भी बाधक बनी रहती है । सम्यक्त्व अथवा सम्यक्दर्शन की प्राप्ति में यही मिथ्यात्वधारा सबसे बड़ा अवरोध है, साथ ही तीव्र कषायदारा भी । यही वह मिथ्यात्व और कषाय की ग्रन्थि है जिसके टूटने पर आत्मा की अपनी स्वयं की ओर रुचि तथा प्रतीति होती है और सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। आत्मा अपने तीव्र अध्यवसाय से जब इस मिथ्यात्व एवं कषाय धारा पर प्रबल प्रहार करता है, इनके मूल स्त्रोत (ग्रन्थि) (point of origin) को तोड़ देता है तब यह धाराएँ विश्रृंखिलत हो जाती है । . मूल स्त्रोत अथवा ग्रन्थि टूटने से इनका प्रवाह समाप्त हो जाता ह। कभी वह प्रवाह समाप्त नहीं होता, सिर्फ रुक जाता है, आगे का प्रवाह बह जाता है और स्त्रोत के रुके होने को कारण पीछे का प्रवाह आता नहीं; इस प्रकार बीच की भूमि साफ-मिथ्यात्व एवं कषाय से रहित हो जाती है । .. कभी ऐसा भी होता है कि यह पूर्णरूप से समाप्त न होकर अत्यन्त क्षीण हो जाती है, सूखने जैसी हो जाती है; किन्तु इस रूप में भी उसकी शक्ति समाप्तप्राय होती है, वह सम्यक्त्व की धारा को अवरुद्ध नहीं कर पातो। मिथ्यात्वधारा के समाप्त होते ही उसी क्षण (at the very moment) आत्मा की सहज ज्ञान ज्योति जगमगा उठती है । इस स्थिति में (सम्यक्त्व का स्पर्श होते ही) जीव. को अनिर्वचनीय आत्मिक आनन्द ही अनुभूति होने लगती है, उसका प्रत्येक प्रदेश आत्मा के नैसर्गिक सहज सुख-रस में विभोर हो जाता है, ज्ञान के प्रकाश से भर उठता है । वह अपनी आत्मा की - निज की दर्शन धारा (श्रद्धा-सम्यक्त्व धारा) में अवगाहन करने लगता है । उसमें समत्व का सहज आनन्द और उल्लास स्फुरित हो जाता है। इस स्थिति में संसार के धन, वैभव, परिवार, भोग्य सामग्री, शरीर के सुख-दुःख आदि सब परभावों में नश्वरता, क्षणभंगुरता का बोध होने लगता है । इससे ममत्व का बंधन ढीला होता है और अमनोज्ञ एवं वियोगजनित पीड़ा से मन क्षुब्ध नहीं होता । संयोगों से उन्मत्त नहीं होता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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