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________________ तत्त्वार्थ सूत्र आचारांग तथा उत्तराध्ययन सूत्र के उपर्युक्त उद्धरणों में निहित तथ्य का स्पष्टीकरण आचार्य वीरसेन के मत से भलीभाँति हो जाता है । उनका मत है कि ज्ञान में जो सशंय आदि दोष दिखाई देते हैं वे मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की प्रतिच्छाया हैं । मिथ्यात्व के नष्ट होते ही ये दोष भी समाप्त हो जाते हैं और ज्ञान सम्यगज्ञान हो जाता है । यहाँ वे एक तर्क देते हैं कि यदि ज्ञान स्वयं ही विकारी हो जाय तो सम्यक्त्व से पूर्व वह आत्मा के अपने शुद्ध स्वरूप को जानेगा कैसे ? और यदि जाना ही नहीं तो शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्रतीति भी नहीं हो सकेगी । तब तो मोक्षमार्ग ही रुक जायेगा; क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में मोक्ष की कल्पना आकाशकुसुमवत् व्यर्थ ही रह जायेगी । सम्यगज्ञान के सम्बन्ध में इतना जान लेना आवश्यक है कि आत्मलक्ष्यी या मोक्षलक्ष्यी ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । जिस ज्ञान के साथ आत्मा एवं मोक्ष के प्रति यथार्थ श्रद्धा होती है, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । अतः सम्यगज्ञान को एक शब्द में या विद्या सा विमुक्तये (विद्या अथवा ज्ञान वही है जो मुक्ति प्रदान करे) कहा जा सकता है । सम्यक् चारित्र अब विचारणीय प्रश्न यह है कि सम्य्कचारित्र भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ ही होता है अथवा बाद में ? इस विषय में आगमिक मान्यता का उल्लेख किया जा चुका है । किन्तु इस प्रश्न को आत्मा की आध्यामिक भाव परिणति से भी समझना आवश्यक है । इसके लिए हमें आत्मा की अतल गहराइयों में उतरना पड़ेगा, देखना पड़ेगा कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व जब आत्मा मिथ्यात्व दशा में था तब, उसकी किस प्रकार की प्रवृत्तियाँ थीं, अन्तरंग में कैसी धाराएँ बह रही थीं और सम्यक्त्व-प्राप्ति के साथ तथा उसके बाद इन धाराओं में कैसा और किस प्रकार का परिवर्तन हो जाता है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा जीव है और जीव एक द्रव्य है । निरुक्त के अनुसार द्रव्य का लक्षण है - 'यद् द्रवति तद् द्रव्यम्' - जो बहता है, वह द्रव्य है । द्रव्य में बहाव की शक्ति अथवा प्रवाहशीलता- धारा आवश्यक है और वह द्रव्य में अवश्यमेव रहती है । आत्मा में भी अनेक धाराएँ प्रतिपल-प्रतिक्षण निरंतर बह रही हैं । कषायधारा, लेश्याधारा, मिथ्यात्वधारा आदि अनेक प्रकार की धाराएँ आत्मा को हर समय उद्वेलित कर रही हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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