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________________ ३०३ आचार - (विरति - संवर) उनकी व्रत-साधना में इन भावनाओं का कोई महत्व अथवा स्थान नहीं है? प्रथम व्रत अहिंसा की ईर्यासमिति भावना को ही लें । क्या अणुव्रती को मार्ग देखकर नहीं चलना चाहिए ? यदि वह न चला तो उसकी क्या स्थिति बनेगी, कहने की आवश्यकता नहीं । ठोकर खाकर दाँत तोड़ लेगा, किसी वाहन की चपेट में आ जायेगा, गन्दगी से पाँव भर लेगा, कोई त्रस जीव उसके पाँवो से कुचल जायेगा । इसी प्रकार क्या उसे अन्य चारों भावनाओं का चिन्तन करने की आवश्यकता नहीं ? क्या वह मन को बेलगाम घोड़े की तरह छोड़ दे, वचनविवेक न रखे अथवा वस्तुओं को बिना देखे - भाले ही उठाये और रखे। ऐसी ही जिज्ञासाएँ अन्य व्रतों की भावनाओं के विषय में की जा सकती है । इन सभी जिज्ञासाओं का सामान्य समाधान एक ही संभव है और वह यह कि जिस प्रकार व्रतों में 'देश' (आंशिक) और 'सर्व' (पूर्ण) का अन्तर है । उसी प्रकार इन भावनाओं में भी 'देश' और 'सर्व' का अन्तर है । महाव्रती साधक इन्हे (इन भावनाओं को) घूर्ण रूप से चिन्तन करता है और अणुव्रती साधक अपनी मर्यादा के अनुसार आंशिक रूप में । जैसे - अणुव्रती के लिए अपनी स्त्री के अंगों को छोड़कर अन्य स्त्रियों को जिनके प्रति वह माता-बहन - पुत्री के भाव ला चुका है, रागपूर्वक देखना अनुचित है, पाप है और सामाजिक दृष्टि से अपराध भी है । ऐसी ही बात उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र से भी ध्वनित होती है। उन्होंने इस सूत्र के अपने स्वोपज्ञ भाष्य में भी 'महाव्रत' शब्द इन भावनाओं के सन्दर्भ में नहीं दिया है । सामान्य 'अहिंसायाः' 'सत्यवचनस्य' 'अस्तेयस्य' 'ब्रह्मचर्यस्य' और 'आंकिचनस्य' यह शब्द ही दिये हैं । अतः इस प्रकार की सभी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए यही समझना अधिक उपयुक्त लगता है कि पाँचों व्रतो की पच्चीस संभावनाएँ सामान्य रूप से वर्णित की गई है । इनका अनुचिन्तन अणुव्रती और महाव्रती - दोनों को ही अपनी-अपनी भूमिकानुसार आंशिक और पूर्ण रूप से सतत करना चाहिए । (तालिका पेज ३०४ ३०५ पर देखें) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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