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आस्रव तत्त्व विचारणा २८७ (६-७) त्याग और तप में शक्ति न छिपाना ।
(८) संघ-साधु समाधि - धर्मसंघ और साधुओं आदि के विघ्न उपसर्गों को दूर कर उन्हे समाधि पहुंचाना-समाधियुक्त रहने में सहायक बनना।
(९) वैध्यावृत्य - रोगी वृद्ध आदि साधुओं की अग्लानभाव से सेवा करना ।
(१०-११-१२) अरिहंत, आचार्य और बहुश्रुत (उपाध्याय) जी की भक्ति करना ।
(१३) शास्त्रों-अंग-उपांगों आदि के प्रति दृढ़ विश्वास, अपूर्व श्रद्धाभक्तिबहुमान रखना ।
(१४) आवश्यकापरिहाणि - आवश्यक के छह अंग हैं - (१) सामायिक (२) चुतर्विशतिस्तव (३) वन्दना (४) प्रतिक्रमण (५) प्रत्याख्यान और (६) कायोत्सर्ग - इनका यथाविधि पालन करना ।
(१५) जिन मार्ग - (जिनधर्म) की प्रभावना करना । । (१६) वत्सलता - चतुर्विध संघ के प्रति वात्सल्यभाव रखना । इन सोलह कारणों से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है ।
यहाँ उल्लेखनीय है कि १६ या २० बोलों की आराधना में विशेष तन्मयता, उत्कृष्ट भावना, लिनता आने पर ये तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध निमित्त बनते हैं ।
__ जैसा कि उद्धृत आगम वाक्य से स्पष्ट है कि तीर्थंकर प्रकृति के उपार्जन के २० बोल हैं । यह सिर्फ कथन शैली का भेद है । २० बोलों में यह १६ कारण भी गर्भित हैं । दोनों कथनों में भेद कुछ भी नहीं है । आगम वचन -
जातिमदेणं कु लमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयाकम्मासरीर जाव पयोगबन्धे ।
जातिअमदेणं. कुलअमदेणं. बलअमदेणं. रूवअमदेणं. तवअमणदेणं: सुयअमदेणं. लाभअमदेणं. इस्सरियमदेणं. उच्चागोयाकम्मासरीर जाव पयोगबन्धे ।
- भगवती, श. ८, उ. सूत्र ३५१
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