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________________ २८६ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र २३ व्रतों का पालन करना (१२) संसार को क्षणभंगुर समझना (१३) शक्ति के अनुसार तप करना (१४) त्याग करना (१५) वैय्यावृत्य करना (१६) समाधि करना (१७) अपूर्वज्ञान को ग्रहण करना (१८) शास्त्र में भक्ति करना (१९) प्रवचन में भक्ति होना (२०) प्रभावना करना । इन कारणों से जीव तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है । ) तीर्थकर प्रकृति के बन्धहेतु___ दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तिस्तत्यागतपसी संघसाधुसमाधिवैयावृत्त्य- करण मर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग- प्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य)।२३।। - (१) दर्शनविशुद्धि (२) विनयसंपन्नता (३) शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन (४) निरन्तर ज्ञानाभ्यास (५) संसार के दुःखों से भय रखना (६-७) शक्ति के अनुसार (न छिपाकार) दान और तप का आचरण (८) संघ और साधु की समाधि (९) वैयावृत्य (१०) अरिहंत भक्ति (११) आचार्य भक्ति (१२) बहुश्रुत भक्ति (१३) प्रवचन भक्ति (१४) आवश्यकों का परिपालन (१५) प्रभावना और (१६) प्रवचन वत्सलता यह सोलह तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के कारण है । विवेचन - इन सोलह कारणों को षोडशकारण भावना भी कहा जाता है । इनमें से दर्शनविशुद्धि नाम का पहला कारण तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के लिए अति आवश्यक है; क्योंकि सम्यक्त्वी जीव ही तीर्थकर प्रकृति का बन्ध कर सकता है, यह नियम है । (१) दर्शनविशुद्ध - २५ मल-दोषों से रहित शुद्ध निर्मल सम्यक्त्व (इसका विस्तृत विवेचन अध्याय १.सूत्र ४ के अन्तर्गत किया जा चुका है ।) __ (२) विनयसम्पन्नता - ज्ञान-दर्शन-चारित्र और उनके साधनों का विनय करना तथा क्रोधादि कषायों का उपशमन करके मार्दव भाव रखना । (३) शीलव्रतों का निरतिचार पालन-अहिंसादि व्रतों मूल गुण और शील, उत्तर गुणों-यम-नियम का निरतिचार दोष रहित आचरण ।। (४) अमीक्ष्णज्ञानोपयोग - निरन्तर सतत तत्त्वाभ्यास करना । (५) संवेग - संसार विषयों से उदासीनवृत्ति । । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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