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________________ आस्रव तत्त्व विचारणा २७३ (हे गौतम ! दूसरे को दुःख देने से, दूसरे को शोक उत्पन्न कराने से, दूसरे को झुराने से, दूसरे को रुलाने, दुसरे को पीटने से, दूसरे को परिताप देने से, बहुत से प्राणियों और जीवों को दुःख देने से, शोक उत्पन्न कराने आदि परिताप देने से जीव असातावेदनीय कर्मों का आस्रव करते हैं । असातावेदनीय कर्म के आस्रव द्वार (बंधहेतु) दुःखशोक तापाक न्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरो भयस्थानान्यसद्वेद्यस्य ।१२। (१) दुःख (२) शोक (३) ताप (४) आक्रन्दन (५) वध (६) परिदेवन-स्वयं करने से, अन्य को कराने से अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करने से, असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है । विवेचन - यहाँ असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण बताये गये है । असातावेदनीय कर्म का कार्य जीव को दुःख की सामग्री मिला देना अथवा दुःखद स्थिति परिस्थिति का संयोग करा देना है । ऐसी विपरीत परिस्थितियों के निर्माण के कारण ही प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं । (१) दुःख- आकुलता-व्याकुलता (पीड़ा) का अनुभव होना । (२) शोक - इष्ट वस्तु के वियोग अथवा अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के संयोग होने पर चिन्ता करना, यह कैसे दूर हो- इस प्रकार का भाव शोक . (३) ताप - निंदा, अपमान आदि से मन में संताप होना । (४) आक्रन्दन - दुःख अथवा विपरीत परिस्थिति से पीड़ितप्रताड़ित-परितप्त होकर विलाप करना, आँसू बहाना, उच्च स्वर से रोना । (५) वध-अन्य प्राणियों के इन्द्रिय आदि प्राणों को पीड़ित करना। (प्राण दस हैं - ५ इन्द्रियबल, ३. मन-वचन-काय बल, १. आयु, १ श्वासोच्छ्वास । इन्हें किसी भी प्रकार ताड़ना, तर्जना, मारना, पीटना, कटु वचन बोलना आदि से पीड़ित करना वध है ।) ___ (६) परिवेदन - ऐसा दीनता भरा विलाप करना कि सुनने वाले के हृदय में दया जागृत हो जाय, परिवेदन है । इन सब बातो मे असातावेदनीय (दुःख देने वाला) कर्म का आस्रव होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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