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२६० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ६ : सूत्र ६
सांपरायिक आस्त्रव के भेद
अव्रतकषायोन्द्रियक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविशतिसंख्या पूर्वस्य
भेदाः |६|
पूर्व (सांपरायिक आस्त्रव) के अव्रत, कषाय, इन्द्रिय और क्रिया ये (चार) भेद हैं तथा क्रमानुसार इनकी संख्या पाँच, चार, पाँच और पच्चीस है ।)
विवेचन सांपरायिक कर्म के बन्धहेतु ही सांपरायिक आस्त्रव हैं । वस्तुतः आस्त्रव और बन्ध में कारण कार्य का सम्बन्ध हैं । यह सम्बन्ध अन्वयव्यतिरेक रूप है अर्थात् जहाँ आस्त्रव होगा वहाँ बन्ध भी अवश्य होगा । हाँ, इतना भेद अवश्य है कि सिर्फ योग रुप बन्धहेतु द्वारा बन्ध मात्र एक समय का ही होता है (सयोगी केवली की अपेक्षा से) और यदि कषाय भी विद्यमान हों तो दीर्घकालीन तथा कटुक - मधुर फल देने वाला बन्ध होता है (छद्मस्थ जीव की अपेक्षा से ) ।
यहाँ सकषाय अथवा सांपरायिक बन्धहेतुओं (आस्त्रवों) के भेद गिनाये गये है ।
१.
अव्रतरुप बन्धहेतु अथवा आस्त्रव ५ हैं - (१) हिसा (२) असत्य, (३) चोरी ( ४ ) अब्रह्म और ( ५ ) परिग्रह से विरति न होना अव्रत है । इन भावों से होने वाला, अर्थात् अविरति से होने वाला आस्त्रव ५ प्रकार का है। कषाय ४ हैं - (१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ । इनके कारण होने वाला आस्त्रव कषायास्त्रव कहलाता है और यह चार प्रकार का है । इन्द्रिय से अभिप्राय यहाँ इन्द्रिय-विषयों से है । इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेषरुप आत्मा की प्रवृत्ति ही आस्त्रव (भावास्त्रव) है और इसी कारण कर्मवर्गणाओं का आगमन होता है ।
इन्द्रियाँ पाँच हैं, – (१) स्पर्शन (२) रसना (३) घ्राण (४) चक्षु और (५) श्रोत्र । इन इन्द्रियों से होने वाला आस्त्रव भी ५ प्रकार का है । क्रिया - कर्मबन्ध की कारणभूत मन-वचन-काय की चेष्टा को क्रिया कहा जाता है ।
क्रियाएँ १ २५ हैं । उनके नाम तथा संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
क्रियाओं के यह नाम तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार हैं। आगे पृष्ठ २६४ की तालिका में आगमोत्क और तत्त्वार्थसूत्रोक क्रियाएं दे दी गई हैं । आगम के अनुसार सम्यक्त्व क्रिया नहीं, संवर 1
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