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________________ पांचवां अध्याय अजीव तत्त्व वर्णन [NON-LIVING ELEMENT (SUBSTANCE) ] उपोद्घात प्रथम अध्याय के सूत्र ४ में सात तत्त्व बताये हैं । इनमें से प्रथम तत्त्व है जीव । जीव का वर्णन दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय में हआ ह। इन अध्यायों में जीव के भाव, चारों गतियाँ आदि सभी बातों का सर्वांगपूर्ण विवेचन हो चुका है । अब क्रम प्राप्त तत्त्व हैं अजीव । प्रस्तुत अध्याय में अजीव तत्व का वर्णन किया जा रहा है । अजीव का अर्थ है जिसमें जीव न हो । जीव का लक्षण है चेतना उपयोग । इस अपेक्षा से अजीव का लक्षण बताया जा सकता है - उपयोग रहितता । जिसमें उपयोग (ज्ञान-दर्शन) नहो, वह अजीव है । यानी अचेतन द्रव्य, जिसमें चेतना का सद्भाव न हो । आगम वचन - चत्तारि अत्थिकाया अजीवकाया पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। - स्थानांग, स्थान ४, उद्दे. १ सू. २५१ - भगवती शकत ७, उद्दे. १८, सू. ३०५ (चार अजीव अस्तिकाय है - (१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय (४) पुद्गलास्तिकाय । अजीवकाय के भेद - अजीवकाया धर्माऽधर्माकाशपुद्गलाः ।१। अजीवकाय के चार भेद हैं - (१) धर्मास्तिकाय (२) अर्धास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय और (४) पुदगलास्थितकाय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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